SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 149
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ -इत्यादि एकाग्रता से सोचना / (2) अपाय-विचय,- 'राग द्वेष-प्रमाद अज्ञान-अविरति-आदि से कितने भयंकर अनर्थ उत्पन्न होते हैं,' -इस पर एकाग्र चिंतन / (3) विपाक-विचय,- 'सुख और दुःख ये कैसे कैसे स्वोपार्जित शुभाशुभ कर्मो के विपाक है !' इस बातका एकाग्र चिंतन / (4) संस्थान विचय,- 14 राजलोक का संस्थान (आकृति) एवं उर्ध्व, अधो, मध्य लोक की परिस्थितियाँ पर एकाग्रता से चिंतन करना। शुक्ल ध्यान के चार प्रकार: (1) पृथक्त्व वितर्क-सविचारः- 'पृथक्त्व' = अन्यान्य पदार्थो पर ध्यान जाने से विविधता / वितर्क = 14 पूर्वगत श्रुत / 'विचार' = विचरण यानी पदार्थ शब्द एवं त्रिविध योग में मन का अन्यान्य संचरण। इन तीनो विशेषताओं वाला ध्यान यह 'पृथक्त्व-वितर्कसविचार' शुक्लध्यान कहलाता है / (2) एकत्ववितर्क-अविचार:- 'एकत्व' = मन का अन्यान्य संचरण नहीं किन्तु इसमें एक ही पदार्थ का आलम्बन होता है / 'अविचार' = पूर्वोक्त विचार (यानी विचरण- संचरण) से रहित / ये दोनों ध्यान पूर्वधर महर्षि कर सकते हैं, और वे केवलज्ञान तक ले जाते हैं | (3) सूक्ष्मक्रिया-अप्रतिपातिः 'सूक्ष्मक्रिया' अर्थात् मोक्ष जाते हुए SA 14488
SR No.032824
Book TitleJain Dharm Ka Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2014
Total Pages360
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy