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________________ स्वाध्याय यह शास्त्रका व्यवसाय है / इसका आशय है सूत्रार्थ के ज्ञान-ध्यान में रमण करना / यह पांच प्रकार से होता है-(i) 'वाचना' -सूत्र व अर्थ-का अध्ययन-अध्यापन / (ii) 'पृच्छा' -जो समझ में न आए अथवा संदग्धि हो उसे गुरु को पूछना / (iii) परावर्तनपठित सूत्र और अर्थ की पुनरावृत्ति करना / (iv) 'अनुप्रेक्षा-सूत्रका मानसिक चिंतन अथवा अर्थ का मानसिक चिंतन करना / ' (v) 'धर्मकथा' -तात्त्विक चर्चा-विचारणा, उपदेश / (5) ध्यान-तप ध्यान का अर्थ है एक विषय पर एकाग्र चित्त यानी चिंतन / उसके दो प्रकार है, शुभ ध्यान व अशुभध्यान / अशुभ ध्यान यह तप नहीं हैं, क्यों कि वह कर्मनाशक नहीं किन्तु कर्मसर्जक है, कर्म का आश्रव है / शुभ ध्यान यह तप है, क्यों कि वह अपूर्व कर्म नाशक है / प्रसंगवश अशुभ ध्यान की भी वियारणा करेंगे, जिस से अपनी आत्मा अशुभ ध्यान से बच सके / / ध्यान का अत्यधिक महत्त्व है; क्यों कि ध्यान के आधार पर कर्मबंधका अन्तिम जजमेन्ट पडता है / प्रसन्नचन्द्र राजर्षि एक बार पहले तो दुर्ध्यान में सातवी नरक तक के पाप एकत्रित करने लगे; किन्तु बाद में शुभध्यान के द्वारा अशुभ कर्मो का नाश कर के ऊँची ऊँची सद्गति के पुण्य बांधने लगे, अंत में चारों घाती कर्मो का नाश कर सीधे केवलज्ञान तक पहुंच गए / यह सब शुभध्यान के SO 1428
SR No.032824
Book TitleJain Dharm Ka Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2014
Total Pages360
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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