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________________ प्रस्तुत में तप द्वारा कर्म-निर्जरा का प्रसंग है-अतः तप को ही 'निर्जरा-तत्त्व' के रूप में प्रतिपादित किया गया है / (इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि भूख, प्यास, मारपीट आदि अपनी अनिच्छा से सहन की जाए, और उसके द्वारा कर्म स्वतः मुक्त हो, नष्ट हो जाए तो वह अकाम-निर्जरा है / जब कि स्वेच्छा से सहिष्णुता द्वारा (i) सत्त्व-विकास, (ii) कर्मक्षय और (iii) आत्मशुद्धि की कामना से जो कर्मोदय यानी कर्मविपाक सहकर कर्मक्षय हो या अनशनादि तप करके बाह्य-आभ्यन्तर तप : तप के दो प्रकार हैं, - बाह्य तप और आभ्यन्तर तप / 'बाह्य' का तात्पर्य है (1) जो बाहर से कष्ट रूप प्रतीत हो, अथवा (2) बाहर लोक में प्रसिद्ध हो / वह तप आभ्यंतर तपका आशय है जो तप आन्तरिक मलिन वृत्तियों को कुचल दे, चूर्ण कर दे, वह तप / जैनदर्शन में प्रतिपादित ये बाह्य-आभ्यन्तर तप छः छः प्रकार के हैं अतः तप के अथवा निर्जरा के कुल 12 भेद होते हैं / बाह्य तप के 6 प्रकार : अनशन, उनोदरिका, वृत्तिसंक्षेप, रसत्याग, काय क्लेश और संलीनता, -ये बाह्य तप है / (1) अनशन, - आहार का त्याग अर्थात् उपवास, एकासन, बियासन, चउविहार, तिविहार, अभिग्रह आदि / 2137
SR No.032824
Book TitleJain Dharm Ka Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2014
Total Pages360
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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