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________________ 8 प्रत्येक प्रकृति : (1) अगुरुलघु नामकर्म - इसके उदय से शरीर न अधिक भारी होता है न अधिक हल्का, किन्तु अगुरुलघु प्राप्त होता है / (2) उपघात नामकर्म - इस कर्म के उदय से अपने ही अवयव द्वारा अपने को पीडा हो एसे अवयवों की प्राप्ति होती है, जैसे कि छोटी जिह्वा (जिह्वा के पीछे छोटी जिह्वा), चोर दांत (दांत के उपर दांत), छट्ठी ऊंगली / (3) पराघात नामकर्म - इस कर्म के उदय से ऐसी मुखमुद्रा की प्राप्ति होती है कि जीव दूसरों पर ओज से प्रभाव डाल देता है | (4) श्वासोच्छ्वास नामकर्म - इससे श्वास लेने छोडने की शक्ति प्राप्त होती है / (5) आतप नामकर्म - इससे स्वयं शीतल होते हुए भी दूसरों को उष्ण प्रकाश दे ऐसे शरीर की प्राप्ति होती है; जैसे कि सूर्यविमान के रत्नो का शरीर / (अग्नि में उष्णता उष्ण स्पर्श के उदय से है, और प्रकाश उत्कट लाल वर्ण के उदय से) (6) उद्योत नामकर्म - जिसके उदय से जीव का शरीर ठंडा, चमकीला प्रकाश दे / जैसे उत्तरवैक्रिय शरीर, चन्द्रादि के रत्न, औषधि आदि / (7) निर्माण नामकर्म - जो बढइ के समान अंगोपांग को शरीर 0 1250
SR No.032824
Book TitleJain Dharm Ka Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2014
Total Pages360
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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