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________________ (5) 5 बन्धन नामकर्म:- जिसके उदय से नये ग्रहण किए जा रहे औदारिक पुद्गल उसी शरीर के पुराने पुद्गलो के साथ, एकमेक चिपक जाते हैं / यह चिपकने वाला कर्म बन्धन-नामकर्म है / इस से अंगोपांग बढते हैं किन्तु इनमें जोड नहीं दीखता / (6) 5 संघातन नामकर्मः- नियत प्रमाणयुक्त तथा विविध अंगो की व्यवस्था युक्त शरीर की रचना करनेवाले पुद्गल के विविध भागों के नियत स्थान में पांचा (दंताली) के समान व्यवस्था करने वाला कर्म यह संघातन नामकर्म है / ___ जैसे कि, आहार में से दांत के, जीभ के, हड्डी के .... इत्यादि पुद्गलों तो बने, परंतु उस उस को ठीक उचित स्थान में व्यवस्थित लगाने का काम संघातन-नामकर्म करता है / (7) 6 संघयण (संहनन) नामकर्म:- हड्डीमें दृढ या दुर्बल जोड (संधिस्थान) देनेवाला कर्म / संघयण छ: प्रकार के हैं / (i) 'वज्रऋषभनाराच संहनन' - हड्डियों के परस्पर संबन्ध, एक दूसरे को आंटी लगाकर और बीच में कील तथा उपर चमडीपट्टे के साथ निर्मित / (नाराच-मर्कट-बंध, इस पर चमडी का पट्टा लिपटा हुआ हो, और बीच में ठीक उपर से नीचे तक आरपार 'वज्र' -हड्डी की कील हो, ऐसा संहनन / (ii) 'ऋषभनाराच संहनन' - वज्र को छोडकर उपर्युक्त मर्कटबन्ध ER 12280
SR No.032824
Book TitleJain Dharm Ka Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2014
Total Pages360
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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