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________________ प्राप्ति कीतनी अति दुर्लभ हैं / अब जबकी इस बोधि की प्राप्ति मुझे यहाँ हो गयी है,तो लेशमात्र भी प्रमाद नहीं करुं व धर्म-आराधना खूब कर लूं" 12. धर्मास्वाख्यात - 'अहो ! सर्वज्ञ अरिहंत भगवान ने कितने सुंदर श्रुत धर्म और चारित्र धर्म का प्रतिपादन किया है ! अतः इन में खुब उद्यत और स्थिर रहूं / ' ऐसी भावना बार बार करनी चाहिए / इन्हें अनुप्रेक्षा भी कहते हैं / अनित्यता आदि की अनुप्रेक्षा अपनी आत्मा के लिए महान टोनिक है / चारित्र : सामायिकादि 5 प्रकार के चारित्र है, - इनमें (1) सामायिक - प्रतिज्ञापूर्वक समस्त सावद्य प्रवृत्तियों का जीवन पर्यंत त्याग और पंचाचार-पालन द्वारा समभाव में रमण करना / (2) छोदोपस्थापनीय - दूषित-सडे हुए अंग के समान दूषति हुए पूर्व चारित्र-पर्याय का छेद करने पूर्वक अहिंसादि महाव्रत में स्थापना, महाव्रतारोपण... | (3) परिहार विशुद्धि - नौ साधु से तीन भागों में अठारह मास तक वहन किए जाने वाले 'परिहार' नामक तप में पालित उत्कृष्ट चारित्र / (4) सूक्ष्मसंपराय - दसवें गुणस्थानक को अन्तिम समय का 0 104
SR No.032824
Book TitleJain Dharm Ka Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2014
Total Pages360
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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