SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 107
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 3. संसार - (i) भवचक्र में यह माता ही पत्नी बन जाती है, यह पत्नी ही माता बन सकती है; शत्रु मित्र हो जाते है, मित्र शत्रु / संसार कैसा कदरूपा? कैसा बेहूदा है? (ii) संसार स्वार्थभरा है, उसमें ममता कैसी? 'संसार जन्म-जरा-मुत्यु, रोग, शोक, वध, बंध, इष्टवियोग, अनिष्ट-संयोग आदि से दुःख पूर्ण है / इस प्रकार सोचकर वैराग्य में वृद्धि करना / 4. एकत्व - 'मैं अकेला हुँ, एकाकी जन्मता हूँ-मरता हूँ, एकाकी परलोक जाता हूँ, एकाकी रोगी होता हूँ और एकाकी दुःखी होता हूँ, मेरे ही उपार्जित कर्मों के फल मैं अकेला ही भोगता हूँ, अतः अब सावधान होकर राग-द्वेष से दूर रहते हुए निःसंग - निरासक्त बनूं / ' 5. अन्यत्व - 'अनित्य, ज्ञानगुण-रहित (जड) प्रत्यक्ष शरीर निराला है, जब की नित्य, ज्ञान-संपन्न, अदृश्य, अतीन्द्रिय आत्मरुप मैं सर्वथा निराला हूँ / धन, कुटुम्ब आदि भी मुझसे सर्वथा अलग है / अतः इन सब की ममता छोड दू / ' 6. अशुचित्व - यह देह गंदे पदार्थ से उत्पन्न हुआ, गंदे से पुष्ट हुआ, वर्तमान में भी भीतर में सब कुछ गंदा - अपवित्र है और खान-पान-विलेपन को गंदा करनेवाला है / ऐसे शरीर का मोह छोड़कर संयम, त्याग, तप की साधना कर लूं / 7. आश्रव - प्रत्येक आश्रव के कैसे-कैसे अनर्थ हैं, इस पर विचार SE 1020
SR No.032824
Book TitleJain Dharm Ka Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2014
Total Pages360
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy