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________________ (स्थान) की गवेषणा में कहीं भी आधाकर्मिक (मुनि के लिए बनाया गया) आदि दोष न लगे, इस बात का ध्यान रखकर गवेषणा करनी / (गवेषणा = निर्दोष भिक्षा की खोज / ग्रहणेषणा = भिक्षा पात्र में लेते समय सावधानी तथा ग्रासेषणा = भोजन में रागादि दोष से बचने का खयाल) 4. आदान भंड मात्र निक्षेप समिति :- पात्रादि (आदान में-निक्षेप में=) लेने-रखने में जीव का घात न हो इस उद्देश्य से देखने व प्रमार्जन करने की प्रवृत्ति / 5. पारिष्ठापनिका समिति :- मल-मूत्रादि को निर्जीव, व निर्दोष स्थान पर ही तजने की सावधानी पूर्वक त्याग / 3. (तीन) गुप्ति-गुप्ति का अर्थ है संगोपन, संयमन / यह दो प्रकार से होता है,-मन, वचन और काया को (1) अशुभ विषय की ओर जाने से रोकना, तथा (2) शुभ में प्रवृत्त कराना / तात्पर्य यह है कि 'गुप्ति' दो प्रकार की, 1. अकुशल योग को निरोधरुप और 2. कुशल योग के प्रवर्तनरुप है / दूसरे शब्दों में कुविचार, कुवाणी व कुव्यवहार को रोककर शुभ विचार आदि का आचरण 'गुप्ति' है / इस प्रकार गुप्ति यह प्रवृत्ति-निवृत्ति उभयरूप होने से विशेष महत्त्व की है /
SR No.032824
Book TitleJain Dharm Ka Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2014
Total Pages360
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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