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________________ 208 કષાયમામૃતાચૂર્ણિ અને જયધવલા ટીકામાં રસઅપવર્તનાનું સ્વરૂપ शंका - इसका कारण क्या है ? समाधान - क्योंकि निक्षेपविषयक स्पर्धकोंका अभाव है / अब इससे ऊपर अपकर्षणका निषेध नहीं है इस बातका कथन करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं - प्रारम्भसे लेकर जघन्य निक्षेप और जघन्य अतिस्थापनाप्रमाण जितने स्पर्धक हैं उतने स्पर्धकोंको उल्लंघनकर वहाँ जो स्पर्धक स्थित है वह अपकर्षित होता है। 10. क्योंकि यहाँ पर अतिस्थापना और निक्षेप पूरे देखे जाते हैं / विवक्षित स्पर्धकसे पूर्वके जघन्य अतिस्थापनामात्र स्पर्धकोंको उल्लंघनकर उनसे पूर्वके जघन्य स्पर्धक तकके जघन्य निक्षेपप्रमाण स्पर्धकोंमें वहाँपर स्थित स्पर्धकका अपकर्षण होना सम्भव है यह उक्त कथनका तात्पर्य है। अब इससे उपरिम स्पर्धकोंका कहीं भी अपकर्षण होना बाधित नहीं है, क्योंकि जघन्य अतिस्थापनाको ध्रुव करके जघन्य निक्षेपकी उत्तरोत्तर एक एक स्पर्धकके क्रमसे वृद्धि देखी जाती इस प्रकार इस बातका कथन करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं - उससे आगे सब स्पर्धक अपकर्षित हो सकते हैं / 11. 'तेण परं' अर्थात् उस विवक्षित स्पर्धकसे आगेके उत्कृष्ट स्पर्धक तकके सभी स्पर्धक अपकर्षित हो सकते हैं, क्योंकि उनकी अपकर्षणरूपसे प्रवृत्ति होनेमें कोई निषेध नहीं है / विशेषार्थ - अनुभागकी दृष्टिसे अपकर्षणका क्या क्रम है इसका विचार यहाँ पर किया गया है। इस सम्बन्धमें यहाँ पर जो
SR No.032798
Book TitlePadarth Prakash 11 Karm Prakruti Sankramakaran Udwartakaran Apvartanakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayhemchandrasuri
PublisherSanghvi Ambalal Ratanchand Jain Dharmik Trust
Publication Year2012
Total Pages266
LanguageGujarati, Sanskrit
ClassificationBook_Gujarati & Book_Devnagari
File Size31 MB
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