________________ 196 श्रीयतिदिनचर्या अवचूणियुता "पत्ताणं पक्खालणसलिलं मुणिणो पियंति तिक्खुत्तो। सोहंति मुहं तत्तो सागरिए पत्तमुह धुवणं // 1 // जे मुणिणो विहिपुव्वं जेमंति सयावि सयलपत्ताणि / धोवणसलिलेण धुवं अवेंति दोसा असेसावि // 2 // तह परिसाडिविमुक्कं जिमंति जइणो जिइंदिया निच्चं / जह जिमियाजिमियाणं ठाणविसेसं न लक्खंति // 3 // " // 109 // अथ पात्रक्षालनक्रमविधि विवृणोति - गुरुणो पत्तं भिन्नं कप्पिय आहागडं तु सेसेसुं / पढमं पक्खालिज्जइ जहाविसुद्धं तु सेसाणि // 110 // गुरोः पात्रकं-भोजनभाजनं भिन्न-पृथक् कल्पयेत्-त्रेपयेत्, कल्पत्रयं कुर्यात्, शेषपात्रकेषु यथाक्रम-क्रमस्यानुल्लङ्घनेन प्रक्षालयित्वा तु पुनः शेषाणि पात्रकाणि यथाविशुद्धं प्रक्षालयेत् // 110 // अथोद्धरितस्याहारस्य को विधिरित्याह - जं गहियमणाभोगाइणा असुद्धं तहेव उव्वरियं / छारेणमक्कमित्ता परिढुवेउं उचियदेसे // 111 // अथ यदशनादि अनाभोगादिना-प्रमादादियोगेन अशुद्धं-सदूषणं गृहीतं तथैवोद्धरितं च तदशनं छारेण-रक्षापुञ्जनाक्रमयित्वा-मर्दयित्वा परिष्ठापयेत्, क्व ?-उचितदेशे-प्राणिवर्जितप्रदेशे-आतपे वा, यदाहुः"जं च असुद्धं गहियं संकियदव्वं विगिंचए थेरो / बालाइपरिटुवणे उड्डाहवहाइया दोसा // 1 // " // 111 // अथ कृताहारो मुनिः किं कुरुते इत्याशङ्क्याह - इरियपडिकमणसक्कत्थयपुत्तिवंदणयसंवरण पुट्वि / निम्मज्जिऊण पत्ते ठविज्ज पेहाइ जा समओ // 112 //