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________________ षष्ठः सर्गः अनुवाद-'मै' न दमयन्ती, न ही दूतकर्म-( दोनों में से ) किसी को भी प्राप्त कर पाया'–यों स्वयं सोचते हुए नल का हृदय-कमल यदि स्फुटित ( विदीर्ण, विकसित ) नहीं हुआ, तो इसका कारण था उस ( दमयन्ती ) के भुख-चन्द्र का आलोक ( दर्शन, प्रकाश ) // 89 // टिप्पणी-नल ने देखा कि इन्द्र का काम तो उसकी दूती ही बना चुकी है, तो मेरा दूत-कर्म अब कहीं का न रहा। मैं ही दूत-रूप में यदि सफल होता, तो संसार में मेरा नाम फैल जाता कि परोपकार में नल ने कितना आत्मबलिदान किया। मैं तो अव कहीं का न रहा। न दमयन्ती मिली, न दूत कर्मसिद्धि / इस दुःख में नल का हृदय फट जाना चाहिए था। यदि नहीं फटा, तो इस कारण कि उनको आलोक ( देखने ) के लिए अपने सामने प्रेयसी दमयन्ती का चाँद-सा मुखड़ा मिल रहा था, जो उन्हें कुछ आश्वासन देता था। कमल भी तो चाँद का आलोक ( प्रकाश ) सामने रहते फटता-खिलता नहीं, बन्द ही रहता है। यहाँ हृदय पर अरविन्दत्वारोप होने से रूपक है, जो भिन्न और 'आलोक' शब्दों में श्लिष्ट है। "भिन्न' होने में आलोक की कारणत्वेन कल्पना की गई हैं, अतः उत्प्रेक्षा भी है। मल्लिनाथ के अनुसार 'इन्दुप्रकाशात् कथमरविन्दविकासः' इति विरोधो ध्वान्यते'। 'भिन्न' 'भिन्न' में छेक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्राश है। ईषत्स्मितक्षालितसृक्किभागा दृक्संज्ञया वारिततत्तदालिः / सजा नमस्कृत्य तयैव शक्रं तां भीमभूरुत्तरयांचकार // 60 / / अन्वयः-भीमभूः ईषत्""भागा, दृक्संज्ञया वारित-तत्तदालि: सती तया स्रजा एव ( सह ) शक्रम् नमस्कृत्य ताम् उत्तरयाञ्चकार / __टोका-भीमः भूः उत्पत्तिस्थानं यस्याः सा ( ब० बी० ) भमीत्यर्थः ईषत् किमपि यथा स्यात्तथा स्मितेन मन्दहसितेन क्षालितौ धौतौ ( त० तत्पु० ) सृक्कभागौ ( कर्मधा० ) सृक्कयोः ओष्ठप्रान्तयोः भागो देशी ( 10 तत्पु० ) यया तथाभूता ( ब० वी० ) ( 'प्रान्तावोष्ठस्य सृक्कणी' इत्यमरः ) दृशोः नयनयोः संज्ञया संकेतेन (10 तत्पु० / वारिताः निषिद्धाः ताः ताः आलयः सख्यो यया तथाभूता सती तया इन्द्र-प्रेषितया स्रजा पारिजात-मालया एव सह शक्रम् इन्द्रम् नमस्कृत्य प्रणम्य ताम् इन्द्रदूतीम् उत्तरयाञ्चकार उत्तरयामास उत्तरं ददी
SR No.032785
Book TitleNaishadhiya Charitam 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandev Pant
PublisherMotilal Banarsidass
Publication Year1979
Total Pages590
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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