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________________ 482 नैषधीयचरिते प्रयोग कर लेते हैं। स्थिरीकृतः स्थिर + च्वि ईत्व + / + क्त ( कर्मणि ) / मन्मथ: मनः मनातीति मनस् +/मथ् + अच् (निपातनात्साधुः ) क्षणम् कालात्यन्तसंयोग में द्वि० / अजीजनत् /जन + णिच् + लुङ। . अनुवाद-(इन्द्रादि) दिक्पालों के दूत-कर्म के कारण हृदय के भीतर दबाया हुआ वियोगावस्था वाला प्रेम प्रिया की दीनता-भरी उक्तियों से उबुद्ध होता हुआ उस राजा ( नल ) को संयोगावस्था में भो क्षण भर के लिए फिर उन्मत्त कर बैठा / / 101 टिप्पणी-यद्यपि प्रिया नल के सामने ही खड़ी थी, तथापि मैं तो दूत हूँ- इस विचार से नल ने उसके प्रति अपने व्यक्तिगत अनुराग को हृदय में बिलकुल दबा रखा था, किन्तु जब वह उनके सामने करुण विलाप करने लगी तो उनसे रहा न गया और वे पहले की तरह वियोग के कारण फिर उसके प्रेम में पागल हो उठे। वे भूल ही गए कि प्रिया मेरे पास ही है और उसके विरह में प्रलाप करने लगे। विद्याधर यहां रूपक कह रहे हैं, जो हम नहीं समझ पा रहे हैं। संभवतः वे वियोग पर मन्मथत्वारोप मान रहे हों। प्रिया-काकुओं को उन्माद का कारण बताने से काव्यलिङ्ग है। उन्माद-नामक व्यभिचारि-भाव के उदय होने से भावोदयालंकार भी है / 'योगे' 'योग' में छेक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास महेन्द्रदूत्यादि समस्तमात्मनस्ततः स विस्मृत्य मनोरथस्थितैः / क्रियाः प्रियाया ललितैः करम्बिता वितर्कयन्नित्थमलीकमालपत् // 102 // ___ अन्वयः-ततः स आत्मनः महेन्द्र-दूत्यादि समस्तं विस्मृत्य मनोरथ स्थितः ललितः करम्बिताः प्रियायाः क्रियाः वितर्कयन् इत्थम् अलीकम् आलपत् / टीका-तत: उन्मादोदयानन्तरम् स नलः आत्मनः स्वस्य महेनस्य शक्रस्य दूत्यम दूतकम (प० तत्पु०) आदी यस्य तथाभूतम् (ब० वी० ) आदि-पदेनात्र अग्न्यादीनां दूत्यकर्म ग्राह्यम् विस्मृत्य विस्मृति प्रापय्य मनोरथे कल्पनायां / स्थित! वर्तमानः मनोरथ-कल्पितरित्यर्थः ललित: विलासैः करम्बिता मिश्रिताः प्रियायाः प्रेयस्याः दमयन्त्याः क्रिया: चेष्टा वितर्कयन् विविधं तकंयन् कल्पयन्नित्यर्थः इत्यम् वक्ष्यमाण-प्रकारेण अलीकम् अबुद्धिपूर्वकम् अज्ञानादिति यावत् आलपत् विलापमकरोत् /
SR No.032785
Book TitleNaishadhiya Charitam 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandev Pant
PublisherMotilal Banarsidass
Publication Year1979
Total Pages590
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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