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________________ पाः सर्गः 43 अभिख्या अभि + Vख्या + अङ् + टाप् / मुहूर्तम् (कालात्यत्तसंयोगे द्वि०) आकस्मिक-अकस्मात् + ष्ठक् टिलोप। अनुवाद-तरुणाई से रमणीय बनी परस्पर एक दूसरी की शोभा को देखती हुई दो मृगनयनियों के बीच में क्षणभर के लिए जाते हुए वह ( नल ) अकस्मात् व्यवधान कर देने से ( उनमें ) आश्चर्य उत्पन्न कर बैठे / / 40 / / / टिप्पणी-दो मृगनयनियों के बीच से अकस्मात् नल गुजर रहे थे तो रुकावट आ जाने से वे क्षणभर एक-दूसरी को न देख सकीं, तो हैरान हो बैठी कि यह क्या जादू है, जो सहेली एकाएक गायब हो गई है। यहाँ प्रश्न उठता है कि नल जब अदृश्य हैं, तो अपने शरीर से वे व्यवधान कैसे कर बैठे ? यह तो. सरासर विरुद्ध है यही बात प्रतिबिम्ब आदि में भी समझ लीजिए। इसके उत्तर के लिए हम पाठकों को सर्ग 5 श्लोक 13 , में इन्द्र द्वारा नल को दिए 'भूयादन्तधिसिद्धरनुविहितभवच्चित्तता यत्र तत्र' इस वरदान की ओर ले जाते हैं / इन्द्र ने सब कुछ नल की इच्छा पर छोड़ दिया है कि वे चाहें, तो न दिखाई देते हुए भी छूए जा सकते हैं, भूषणों और मणिमय कुट्टिमों में अपना प्रतिबिम्ब डाल सकते हैं, अपने शरीर से दूसरे को ढक सकते हैं इत्यादिइत्यादि / तभी तो युवतियों को आश्चर्य होता रहता था कि ये अनहोनी बातें क्या हैं। किन्तु दिव्य वरदान की शक्ति के सामने सब संभव है। विरोध की कोई बात नहीं। 'तारुण्यपूर्णया' में छेक और अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। * पुरस्थितस्य क्वचिदस्य भूषारत्नेषु नार्यः प्रतिबिम्बितानि / व्योमन्यदृश्येषु निजान्यपश्यन्विस्मित्य विस्मित्य सहस्रकृत्वः॥ 41 // अन्वयः-क्वचित् पुरःस्थितस्य अस्य अदृश्येषु भूषा-रत्नेषु निजानि प्रतिबिम्बितानि विस्मिल्य विस्मिल्य नार्यः सहस्रकृत्वः व्योमनि अपश्यन् / टीका-क्वचित कस्मिंश्चित् स्थाने युवतीनां पुरः अग्रे स्थितस्य वर्तमानस्य अस्य नलस्य भूषाणाम् आभरणानाम् रत्नेषु मणिषु निजानि स्वीयानि प्रतिबिम्बितानि प्रतिबिम्बानि विस्मित्य विस्मित्य पौन:पुन्येन आश्चर्य कृत्वा सहस्रकृत्वः सहस्रवारम् ब्योमनि आकाशे शून्ये इति यावत् अपश्यन् अवालोकयन् / नलस्य भूषणरत्नेषु युवतीनां छाया तु अपतत् किन्तु नलभूषारत्नानि अदृश्यान्यासन्निति शून्ये स्वप्रतिच्छायाः दृष्ट्वा ताः भृशं विस्मिताः जाताः इति भावः / / 41 // व्याकरण-भूषा इसके लिए पीछे श्लोक 28 देखिए / प्रतिविम्बितानि
SR No.032785
Book TitleNaishadhiya Charitam 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandev Pant
PublisherMotilal Banarsidass
Publication Year1979
Total Pages590
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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