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________________ अष्टमः सर्गः 333 ___ टिप्पणी-यहाँ से लेकर तीन श्लोकों में नल अब यम का दौत्य करता हुआ उसकी विरहावस्था का चित्रण कर रहा है / प्रथम और द्वितीय पाद विशेष्य भूत ‘स विभुः' के विशेषणात्मक उपवाक्य हैं", जो साभिप्राय हैं। सूर्य कमलों का सखा इस तरह बना कि वह उनको विकसित करता है / कमल ठंडक पहुँचाने वाले हुआ करते हैं, जो पिता के मित्र हैं। इसी तरह चन्दन भी ठंडक पहुँचाता है, चन्दन दक्षिण दिशा में होता है, जो यम की प्रेयसी ही है, किन्तु आश्चर्य है कि फिर भी यम को तुम्हारे विरह के दाह से शान्ति नहीं मिल रही है। इस तरह हमारे विचार में यहाँ विशेषणों के साभिप्राय होने से परिकरालंकार है। शब्दालंकार वृत्त्यनुप्रास है / तं दह्यमानैरपि मन्मथैधं हस्तैरुपास्ते मलयः प्रवालैः / कृच्छ्रेऽप्यसौ नोज्झति तस्य सेनां सदा यदाशामवलम्बते यः / / 78 // अन्वयः-मलयः मन्मथैधम् तम् दह्यमानः अपि प्रवाल: हस्तैः उपास्ते / यः सदा यदाशाम् अवलम्बते, असौ कृच्छे अपि तस्य सेवाम् न उज्झति / ____टोक-मलयः मलयाचल : मन्मथस्य कामस्य एधम् इन्धनभूतम् ('काष्ठं दाविन्धनं त्वेधः' इति कोशानुसारम् एधशब्दः पुल्लिङ्गोऽपि) कामाग्निना दह्यमानमित्यर्थः तम् यमम् दह्यमानैः तदङ्गसङ्गात् प्लुष्यमाणः अपि प्रवाल: किसलयैः एव हरत: करैः उपास्ते सेवते, मलयाचलः शैत्यापादनार्थ स्वचन्दनवृक्ष-किसलयानि यमाय ददाति यानि दह्यमानतदङ्गस्पर्शन स्वयमपि दह्यन्ते इति भावः / यः जनः सदा सर्वदा यस्य आशाम् यत्सम्बन्धिनीम् तृष्णाम् अभिलाषम् अनुरागमिति यावत् अथ च दिशाम् अवलम्बते आश्रयति असौ स कृच्छे संकटे अपि. तस्य सेवाम् न उज्झति न त्यजति; यः यस्मात् जनात् सकाशात् किमपि आशासते, स विपत्कालेऽपि तम् सेवते एव / यमो दक्षिणाम् आशाम् ( दिशाम् ) अधितिष्ठति तस्मात् दक्षिणाशास्थितो मलयाचल: संकटगतं तम् स्वयमपि संकटे पतित्वा सेवते इति भावः // 78 / / व्याकरण-एधः इध्यतेऽनेन ( अग्निः ) इति/इन्ध + घञ् ( करणे ) न लोप (निपातनात् ) / दह्यमानः /दह, + शानच् ( कर्मकर्तरि ) / सेवाम् NE.व + अ + टाप् / अनुवाद-"मलयाचल कामदेव ( की अग्नि ) के इन्धन-भूत उस ( यम),
SR No.032785
Book TitleNaishadhiya Charitam 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandev Pant
PublisherMotilal Banarsidass
Publication Year1979
Total Pages590
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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