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________________ नैषधीयचरिते अन्यान्याङ्गदर्शनसातत्यम् न अदास्यत न व्यतरिष्यत् / दमयन्ती नलस्य यदङ्गम् प्रथमं पश्यति स्म चिरं तदेव पश्यन्ती स्थिता भवति स्म / चिरात् जाते पक्षमपाते तदनन्तरमेव पूर्वाङ्गदर्शनधाराया: विच्छेदे जाते एव अन्यान्याङ्गदर्शनेच्छा तस्याः जायते स्मेति भावः // 9 // व्याकरण-निमेषः नि+ मिष + घन / विच्छिद्य विच्छिच आभीक्ष्ण्य में द्वित्व / बुद्धिः / बुध + क्तिन् ( भावे ) / अयास्यत्, अवास्यत् क्रियातिपत्ति में लङ / ___अनुवाद-इस ( दमयन्ती ) की दृष्टि इन ( नल ) के जिस अंग को पहले देखती थी, उसी में मग्न हुई दूसरे अंग की ओर न जाती यदि देर से होने वाली पलकों की झपकन पूर्व अंग का ज्ञा। बार-बार भंग करके इस ( दमयन्ती) के लिए अन्य ( अंगों को) ज्ञान-धारी का ( अवसर ) न देती // 9 // टिप्पणी-दमयन्ती नल के अद्भुत सौन्दयं भरे अंग-अंग को देखकर मोहित हो उठती थी। उनका जो भी अंग उसकी दृष्टि में पहले आता वह उसी पर रम जाती थी और उसे अपलक देखती जाती थी। देर बाद जब आँख झपकती तब जाकर कहीं उस अंग का ज्ञान भंग होता और दृष्टि दूसरे अंग पर जाती / यदि आँख न झपकती तो वह पहले अंग में ही डूबी रहती। यही हाल अन्य अंगों के सम्बन्ध में भी समझ लीजिये, क्योंकि उनके सभी अंग एक-से-एक बढ़-चढ़कर थे। प्रत्येक पर उसकी दृष्टि लगातार गड़ी की गड़ी रह जाया करती थी। विद्याधर के अनुसार अतिशयोक्ति है, जिसका प्रयोजक यहाँ 'यदि' शब्द हैं। 'दास्य' 'दस्य', 'विच्छिद्य विच्छिद्य' में छेक, 'यास्य' दास्य में पदान्तगत अन्त्यानुप्रास और अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। बद्धिधाराम्-यहां कवि न्याय और बौद्ध दर्शन की ओर संकेत कर रहा हैं। दोनों में ज्ञान को क्षणिक माना है / लगातार जो ज्ञान हमें होता रहता है, वह एक ज्ञान नहीं, बल्कि सजातीय ज्ञान-सन्तान ( बुद्धिधारा ) होता है जैसे शब्द-संतान / दृशापि सालिङ्गितमङ्गमस्य जग्राह नाग्रावगताङ्गहर्षेः। / / अङ्गान्तरेऽनन्तरमीक्षिते तु निवृत्य सस्मार न पूर्वदृष्टम् // 10 // अन्वयः-सा दृशा आलिङ्गितम् अपि अस्य अङ्गम् अग्रावगताङ्गहर्षेः न जग्राह, अनन्तरम् अङ्गान्तरे वीक्षिते तु निवृत्य पूर्वदृष्टम् न सस्मार।
SR No.032785
Book TitleNaishadhiya Charitam 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandev Pant
PublisherMotilal Banarsidass
Publication Year1979
Total Pages590
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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