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________________ नैषधीयचरिते टोका–स नलः तस्मिन् अन्तःपुरे माता वायुना जडेनापीत्यर्थः परिस्प्रष्टुम् मर्दयितुम् इव अस्तम् अपनीतम् वस्त्रम् वसनम् याभ्याम् तथाभूतौ (ब० बी० ) तन्म्याः कृशाङ्गयाः स्तनो कुची पश्यन् विलोकयन् विलक्षः लज्जितः सन् न क्षान्तः सोढः पक्षान्तमृगाङ्कः ( कर्मधा० ) पक्षस्य अर्धमासस्य शुक्लपक्षस्येत्यर्थः ( ष० तत्पु० ) अन्तस्य समाप्त : (10 तत्पु० ) यो मृगाङ्कः चन्द्रः, मृगः हरिणः अङ्कः चिह्न ( कर्मधा० ) यत्रेति ( ब० वी० ) पौर्णमासीचन्द्र इत्यर्थः येन तथाभूतम् (ब० वी० ) आस्यम् मुखम् तिर्यक् तिरः यथास्यात्तथा वलितम् चलितम् विवतितमिति यावत वधार दधौ वायुना कृतं परस्त्रियाः कुचमर्दनरूप-सम्भोग-दर्शनमनुचितमिति कृत्वा लज्जया नलेन स्वचन्द्रतुल्यं मुखं परावर्तितम्, स तस्मात्परामुखोऽभवदिति यावदिति भावः / / 18 // ___ व्याकरण--परिस्प्रष्टुम् परि + /स्पृश् + तुमुन् / वस्त्रम् वस्ते ( आच्छादयति ) इति /वस् + ष्टुन् / क्षान्त /क्षम् + क्त ( कर्मणि ) / आस्यम् अस्यते (प्रक्षिप्यते ) अन्नादिकमति - अस् + ण्यत् ( अधिकरणे ) / वलितम् /वल + क्तः ( कर्तरि ) / ___ अनुवाद-उस ( नल ) ने वहाँ ( रनिवास में ) वायु द्वारा भी मर्दन हेतु हटाये गये वस्त्र वाले कृशाङ्गी के कुचों को देखकर लज्जित हो ( अपना ) पौणंमासी के मृगलांछन-चन्द्रमा को न सहन करने वाला मुंह फेर दिया // 18 // टिप्पणी–वायु द्वारा कृशाङ्गी के कुचों के साथ की जा रही काम केलि देखना अनुचित समझकर नल ने उधर से मुंह फेर लिया-ऐसा मुंह, जो अपने मुकाबले में पूर्ण चन्द्र को नहीं सह सक रहा था, क्योकि वह मृगाङ्क था, मृग का-सा काला दाग रख रहा था, जबकि मुँह स्वयं बेदाग था। राजा के चाँद-जेसे मुँह के फेर देने से यह वस्तु-ध्वनि निकलती है कि काम-केलि के समय चाँद का छिपा रहना ठीक ही है। वायु से स्तन-वस्त्र हट जाना स्वाभाविक है किन्तु कवि ने वायु पर स्तन-मर्दन हेतु वस्त्र हटाने की कल्पना की है जिससे उत्प्रेक्षा बन रही है। चन्द्रमा की अपेक्षा मुख को निष्कलङ्क बताने में व्यतिरेक है। मृगाङ्क शब्द साभिप्राय होने से परिकरांकुर है / अपि शब्द से अर्थापत्ति बन रही है। लज्जाभाव उदय होने से भावोदयालंकार भी है। परस्पर सापेक्ष होने के कारण इन सभी अलंकारों का हम यहाँ अङ्गाङ्गिभाव संकर कहेंगे। शब्दालंकारों में से 'क्षान्त' 'क्षान्त' में यमक है, जिसके साथ 'अक्षान्त' 'पक्षान्त' से
SR No.032785
Book TitleNaishadhiya Charitam 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandev Pant
PublisherMotilal Banarsidass
Publication Year1979
Total Pages590
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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