SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 175
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 102 नैषधीयचरिते मेरे लिये इसके साथ वियोग के कारण वेदना से उत्पन्न मूर्छा-रूपी निशा की प्रभात सन्ध्या के रूप में चमक रही है (प्रभात-सन्ध्या भी इन्द्र की काष्ठा (पूर्व दिशा ) में राग (लाली) उत्पन्न करने वाली एवं द्विजों (ब्राह्मणों) द्वारा पूजी जाती है) / / 45 // टिप्पणी-नल दमयन्ती के वियोग में वेदना से तड़पते हुए कभी मूर्छा को भी प्राप्त कर लेते थे, लेकिन आज शुभ्र दन्तावली में चमकती हुई प्रेयसी को रखा था और स्वयं भी वे उसका दूत बनकर आये हुए थे। उनके लिए वह उनकी मूर्छा-निशा की प्रातः सन्ध्या बन बैठी। यहाँ मूर्छा पर निशात्वारोप होने से रूपक है। कवि ने श्लिष्ट भाषा का प्रयोग करके दमयन्तो के साथ सन्ध्या का सादृश्य भी बता रखा है। वे दोनों राग करने वाली, श्वेतिमा लिए और द्विजोपासित हैं। सादृश्य-वाचक शब्द यहाँ कोई नहीं दिया गया है, अतः दमयन्ती पर सन्ध्यात्वारोप मानकर यहाँ श्लिष्ट रूपक कहैं या फिर विभाति शब्द को कल्पना-वाचक मानकर श्लिष्ट उत्प्रेक्षा कहैं-यह सन्देह बना रहने से इसे हम सन्देहसंकर कह सकते हैं मल्लिनाथ शुद्ध उत्प्रेक्षा मान बैठे हैं। 'विभात' 'विभाति' में छेक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। राजौ द्विजानामिह राजदन्ताः संविभ्रति श्रोत्रियविभ्रमं यत् / उद्वेगरागादिमृजावदाताश्चत्वार एते तदवैमि मुक्ताः // 46 // अन्वयः-इह द्विजानाम् राजौ उद्वेग दाता एते चत्वारः राजदन्ताः यत् श्रोत्रिय-विभ्रमम् संविभ्रति तत् मुक्ताः अवैमि ! टीका-इह अस्याम् पुरोदृश्यमानायाम् द्विजानाम् दन्तानाम् अथ च विप्राणाम् राजौ पंक्तौ उद्वेगः पूग-फलम् ( 'घोण्टा तु पूगः क्रमुको गुवाकः खपुरोऽस्य तु / फलमुद्वेगम्' इत्यमरः) तेन रागः लौहित्यम् ( तृ० तत्पु० ) आदी यस्य तथाभूतस्य ( ब० वी० ) खदिरादिकस्य मृजया शोधनेन (10 तत्पु० ) अवदाता: उज्ज्वलाः ( तृ० तत्पु० ) अथ च उद्वेगः उद्विग्नता चित्तविक्लवतेति यावत् च राग: विषयाभिलाषश्च ( द्वन्द्व ) आदी येषान्तथाभूतो द्वषादिः तस्य मृजया मार्जनेन त्यागेनेत्यर्थः अवदाताः निष्पापाः एते पुरो दृश्यमानाः चत्वारः चतुःसंख्यकाः राजदन्ताः दन्तानां राजानः श्रेष्ठदन्ता इत्यर्थः अथ च राजत् अन्तः
SR No.032785
Book TitleNaishadhiya Charitam 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandev Pant
PublisherMotilal Banarsidass
Publication Year1979
Total Pages590
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy