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________________ षष्ठः सर्गः दृशम् दृष्टिम् ददौ प्रक्षिप्तवानित्यर्थः। कस्याप्यन्यस्य जनस्य प्रवेशे रक्षापुरुषः निरुद्ध 'किमसी मां दृष्टवानिति मामेव निवारयतीति विस्मितो नलो विवर्तितकन्धरा सन् पश्चाद् दृष्टि प्राक्षिपदिति भावः // 12 // ___ व्याकरण-विभुः विशेषेण भवतीति वि + /भू + डु। द्वारि-यास्क के अनुसार 'वारयतीति सतः' अर्थात् / + णिच् + क्विप् दकारागम। निवारकाणाम् नि + + णिच् + ण्वुल् / गिरा-गीयते इति गृ + क्विप् (भावे)। विभुज्य–वि + भुज् + ल्यप् / ___ अनुवाद-वे महिमशाली राजसिंह नल यद्यपि ड्योढी पार कर चुके थे, तथापि 'यह कौन है ?' इस तरह (किसी ) दूसरे को रोक देने वाले ( सिपाहियों) की आवाज के कारण गर्दन मोड़कर आश्चर्य से निनिमेष दृष्टि (पीछे ) डाल बैठे // 12 // टिप्पणी-राजसिंहः-यद्यपि सिंह शब्द को प्रशस्त वाचक मानकर उसका 'प्रशंसावचनैश्च' (2 / 1 / 16) से परनिपात करके श्रेष्ठ राजा अर्थ किया जा सकता है तथापि राजा सिंह इव' इस तरह उपमित समास मानने में हम अधिक स्वारस्य समझते हैं। अगर नल को किसी ने देख भी लिया है, तो इन्हें कोई डर नहीं। वे मुकाबला करने में सक्षम हैं। सिंह भी तो किसी का शब्द सुनकर निर्भय हो पीछे गर्दन मोड़कर अवज्ञा के साथ देखता ही है, डर के मारे भागता नहीं है। इस तरह यहाँ उपमा है। साथ ही स्वभावोक्ति भी है / "विभु' 'विभु' में छेक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। अन्त पुरान्तः स विलोक्य बालां कांचित्समालब्धुमसंवृतोरुम् / निमीलिताक्षः परया भ्रमन्त्या संघट्टमासाद्य चमच्चकार // 13 // अन्वयः-सः अन्तःपुरान्तः समालब्धुम् असंवृतोरुम् काञ्चित बालां विलोक्य निमीलिताक्षः ( सन् ) भ्रमन्त्या परया संघट्टम् आसाद्य चमच्चकार / टीका–स नलः अन्तःपुरस्य अवरोधस्य अन्तः अभ्यन्तरे (10 तत्पु० ) समालन्धुम् उद्वर्तयितुम् सुगन्धितद्रव्यलेपनार्थमिति यावत् असंवृतो अनाच्छादिती उद्घाटिती इत्यर्थः ऊस जंधे ( कर्मधा० ) यस्याः तथाभूताम् (ब० वी० ) काञ्चित् कामपि बालाम् तरुणी स्त्रीम् विलोक्य दृष्ट्वा निमीलिते पिहिते अक्षिणी नयने ( कर्मधा० ) येन तथाभूतः (ब० बी० ) सन् भ्रमन्त्या तत्र
SR No.032785
Book TitleNaishadhiya Charitam 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandev Pant
PublisherMotilal Banarsidass
Publication Year1979
Total Pages590
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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