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________________ सप्तमः सर्गः 3. व्याकरण-भूमिभृत भूमि/भृ + क्विप् ( कर्तरि ) तुगागम / शृङ्गारः 'शृङ्ग हि मन्मथोद्भेदः' तस्य आरः प्रापकः आरयतीति /ऋ+ णिच् + अच् ( कर्तरि ) / 'सेयम् 'तङ्गिणी' यह सारा विशेष्यात्मक उपवाक्य 'जानामि' का कर्म वना हुआ है। यौवनम् यूनो युवत्या वा भावः इति युवन् + अण् / पूरः पूर् + घन्। अनुवाद—'वह यह ( दमयन्ती ) भूमिभृत् ( पर्वत ) से निकलो, तरङ्ग ( कामोद्रक ) रूपी तरङ्गों वाली शृङ्गाररस-रूपी रस ( जल ) की नदी है, जिसमें उच्चस्तनता (उच्चकुचता ) से घने (निविड़ ) यौवन-रूपी उच्चस्तनन ( जोर की गर्जना ) करने वाले धन ( मेघ) ने लावण्य के पूर ( अतिशयता) के रूप में पूर-जल की बाढ़ ला दी है // 11 // टिप्पणी-दमयन्ती भरकर जवानी में है। हृदय में काम-वासना लहरा रही है / स्तन ऊँचे उठे हुए हैं तथा सौन्दर्य में पूरा निखार आया हुआ है। इस वात को कवि रूपक की सर्वाङ्गीण अप्रस्तुत योजना द्वारा अभिव्यक्त कर रहा है। रूपक का कोई अंग अछूता नहीं रहा, अतः वह समस्त वस्तु-विषयक बना हुआ है / शब्दों में श्लेष का पुट है / राजा भीम बना पर्वत, शृङ्गार बना जल, कामोद्रक बना तरङ्ग, दमयन्ती बनी नदी, उसकी घनी उच्चस्तनता बनी ऊँची मेघ गर्जना, यौवन बना धन ( मेघ ) लावण्य-पूर ( पूरा सौन्दर्य-निखार ) बना बाद। रूपक के साथ भूमिभृत् आदि में भेदे अभेदातिशयोक्ति भी है, क्योंकि वे सब भिन्न-भिन्न अर्थों के प्रतिपादक हैं. लेकिन कवि ने श्लेष द्वारा उनमें अभेदाव्यवसाय कर रखा ह / मल्लिनाथ 'जानामि' शब्द को संभावना-वाचक मानकर उत्प्रेक्षा भी कह रहे हैं, किन्तु हमारे विचार से यहाँ उत्प्रेक्षा नहीं बनती क्योंकि वह उपमा और रूपक के बीच की कड़ी होती है। यहाँ देखा तो दमयन्ती आदि के साथ पूरा तादात्म्य स्थापित है, कल्पना नहीं है। शब्दालंकारों में 'भृतः' "भूना' में छेक, 'वनेन' 'घनेन' में तुक मिलने से पादान्तगत अन्त्यानुप्रास, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। अस्यां वपुयू हविधानविद्यां किं द्योतयामास नवां' स कामः / प्रत्यङ्गसङ्गस्फुटलब्धभूमा लावण्यसोमा यदिमामुपास्ते // 12 // 1. नवामवाप्ताम्
SR No.032785
Book TitleNaishadhiya Charitam 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandev Pant
PublisherMotilal Banarsidass
Publication Year1979
Total Pages590
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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