SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 88
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ त्रयोदशः सर्गः। सरस्वती देवीने दमयन्ती को संकेत किया है कि तुम श्लेषोक्ति ज्ञानमें चतुर हो, अतः सावधान होकर समझो कि इस अग्निमें केवल भस्म ही है, अन्य कुछ सारभूत पदार्थ नहीं इस कारण इसे वरण मत कर लेना ] / (ग्रास, अर्थात शस्त्र-सामर्थ्य से नष्ट ) होते हुए इन राजाओंके साथ होने वाला अधिक युद्ध ही है कारण जिसका ऐसे इस (नल ) को सम्पत्ति अर्थात् विजयमें प्राप्त श्री अत्यन्त ऐश्वर्यवान् तथा तपस्वीके भी अर्थात भोग-विलास करनेवाले ऐश्वर्यवान् धनिकवर्ग तथा निःस्पृह तपस्विवर्ग-दोनों के लिये भी अनुरागोत्पादन करनेवाली होती है अर्थात् भोग-विलासयुक्त ऐश्वर्यवान् धनिक तथा निःस्पृह तपस्वी-ये दोनों ही इस ( नल ) की सम्पत्तिके लिए आकृष्ट होते ( उसे चाहते ) हैं // 10 // एतन्मुखा विबुधसंसदसावशेषा माध्यस्थ्यमस्य यमतोऽपि महेन्दतोऽपि / एनं महस्विनमुपेहि सदारुणोच्चैर्येनामुना पितृमुखि ! ध्रियते करश्रीः // 11 // __ एतदिति / पितुर्मुखमिव मुखं यस्याः तस्याः सम्बुद्धिः हे पितृमुख !, 'धन्या पितृमुखा कन्या धन्यो मातृमुखः सुतः' इति सामुद्रिकवचनात् , अशेषा समग्रा, असौ विबुधसंसद् देवसभा, एष अग्निः एव मुखमास्यं यस्याः सा एतन्मुखा, 'अग्निमुखा वेदेवाः' इति श्रुतेः,बर्हिमुखः क्रतुभुजः' इत्यभिधानाञ्चअस्य अग्नेः, यमतो महेन्द्रतोऽपि यमस्य महेन्द्रस्य च, पष्ठ्यर्थे सार्वविभक्तिःस्तशिल , माध्यस्थ्यं मध्यस्थानवतित्वं, मध्यदिगवर्तिस्वमित्यर्थः, अग्निकोण स्थितत्वमिति यावत् , अग्निकोणाधिपस्याग्नेः दक्षिणपूर्वदिगधिपयोः यमेन्द्रयोः मध्यवर्तित्वादिति भावः, महस्विनं तेजस्विनम्, एनम् उपैहि प्राप्नुहि, सदारुणा दारुसहितेन, सेन्धनेनेत्यर्थः, येनामुना अग्निना, उच्चम:ती, करधीः अंशुसम्पत् , ध्रियते धार्यते / अन्यत्र तु-अशेषा असौ विबुधः संसद् विद्वत्सभा, एतन्मुखा एतत्प्रधाना, एतदेकशरणेत्यर्थः, तथा अस्य नलस्य, यमतो यमात् , महेन्द्रले महेन्द्राच्च, पञ्चम्यास्तसिल, माध्यस्थ्यम् औदासीन्यं, शत्रु. मित्रयोः समानदण्डदानादपक्षपातित्वेन समदर्शित्वमित्यर्थः, महस्विनं तेजस्विनम् उत्सववन्तं वा, 'महस्तूत्सवतेजसोः' इत्यमरः, एनमुपैहि, सदा सर्वदा, येनामुना नलेन, अरुगा आताम्रा, उच्चैः करश्रीहस्तशोभा, 'बलिहस्तांशवः कराः' इत्य. मरः, ध्रियते // 11 // ___ अग्निपक्षसें-हे पिताके समान मुखवाली ( दमयन्ति ) ! इस सम्पूर्ण देवसभा ( देवसमूह ) का यही मुख है, यम तथा इन्द्र की अपेक्षा भी इसका माध्यस्थ्य है अर्थात् दक्षिण दिक्पाल यम तथा पूर्वदिक्पाल इन्द्र के भी मध्य में अग्नि कोण का दिक्पाल यह ( अग्नि ) बीचमें रहता है ( अथवा-इस स्वयंवर सभामें यह ( अग्नि ) इन्द्र तथा यमके बीचमें बैठा है ) / इस तेजस्वी को प्राप्त करो, काष्ठ अर्थात् दाह्य इन्धनके साथ जो सर्वदा लाल अधिक
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy