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________________ 1546 नैषधमहाकाव्यम्। स्याधोभागस्थो जलपूर्णकाचकपिकापायो यथोदिनः, तथैव पूर्वमासीदित्युक्तम् // 85 // यह चन्द्र (गर्गाचार्यादिप्रणीत ) ज्योतिषशास्त्रके अनुसार (कपित्थफलके समान ) गोलाकार था, तदनन्तर राहुके दाँतोंकी दोनों पंक्तिरूप ( दबानेके ) यन्त्रसे निचोड़े गये अमृतरसवाले (तिल आदिकी ) खलीके समान चिपटा हो गया है, यह सबको प्रत्यक्ष अनुभव होता है / [ गोलाकार पदार्थको दबाकर रस निकाल लेनेपर चिपटा होना उचित ही है ] // 85 // असावसाम्याद्वितनोः सखा नो कर्पूरमिन्दुः खलु तस्य मित्रम् / दग्धौ हि तौ द्वावपि पूर्वरूपाद्यद्वीर्यवत्तामधिकां दधाते / / 86 // असाविति / असौ चन्दो वितनोरनङ्गस्य सखा नो भवति / कुतः ? असाम्या दसादृश्यात् / 'विवाहमैत्रीवैराणि भवन्ति समशीलयोः' इति शास्त्रादनयोः साङ्गान गयोः सादृश्याभावान्मैत्री न संगच्छत इत्यर्थः / तद्यनयोलोकप्रसिद्धा मैत्री कथमि. त्यत आह-खलु निश्चितं कर्पूरापरनामैवेन्दुस्तस्यानङ्गस्य मित्रम् , तावतैव लोक. प्रसिद्धिरिति विरोधाभाव इत्यर्थः। तत्र हेतुमाह-यद्यस्मात्तौ द्वावपि कामकर्पूरी दग्धौ मन्तौ पूर्वरूपाददग्धदशायाः सकाशादधिको वीर्यवत्ता हि स्पष्टं दधाते / पक्को हि कर्पूरो वीर्यवत्तरो भवति, कामोऽपि दाहानन्तरमधिकं वीयवाननुभूयते / तदुः क्तम्-'कर्पूर इव दग्धोऽपि शक्तिमान् यो जने जने / नमोऽस्त्ववार्यवीर्याय तस्मै कुसुमधन्वने // ' इति / तस्मास्कामकर्पूरयोमैत्री युक्ता / 'अथ कर्पूरमस्त्रियाम् / घन. सारश्चन्द्रसंज्ञः' इत्यमरः / 'अस्त्रियाम्' इत्यमरवचनात् 'कपूर'शब्दो नपुंसकोऽपि // (अङ्गसहित तथा अङ्गरहितरूप ) असमानता होनेसे यह ( अङ्गसहित) चन्द्रमा (अङ्गरहित ) कामदेवका मित्र नहीं है, किन्तु ('चन्द्रमा' का पर्यायवाचक) 'कर्पूर' उस कामदेवका मित्र है, क्योंकि जले हुए वे दोनों (कामदेव तथा कर्पूर ) ही पहले ( जलने के पूर्व ) अधिक वीर्यवत्ताको धारण करते हैं। [जला हुआ कप भी कच्चे कर्पूरकी अपेक्षा अधिक वीर्यवत्तर होता है / शिवजीकी नेत्राग्निसे जला हुआ कामदेव पहलेकी अपेक्षा अधिक वीर्यवान् हो गया है, इससे कामदेवका मित्र चन्द्रमा नहीं, किन्तु 'चन्द्रमा' का वाचक 'कर्पूर' ही चन्द्रमाका मित्र है, इस शब्दभ्रमसे ही लोकमें कामदेवका मित्र चन्द्रमा समझा जाता है ] // 86 // स्थाने विधोर्वा मदनस्य सख्यं सः शम्भुनेत्रे ज्वलति प्रलीनः / अयं लयं गच्छति दर्शभाजि भास्वन्मये चक्षुषि चादिपुंसः / / 87 // स्थान इति / वाऽथवा विधोर्मदनस्य सख्यं स्नाने, युक्तमेवेत्यर्थः / तत्र हेतु:स कामः ज्वलति देदीप्यमाने शंभुनेत्रे प्रलीनः प्रकर्षेण लीन एकतां प्रलयं गतः, विनष्ट इत्यर्थः / अयं चन्द्रश्च दर्शभाजि दर्शनं दर्शस्तव्यापारयुक्त, अथ च-अमावस्यां गते, भास्वन्मये सूर्यरूपे आदिपुंसो विष्णोश्चतुषि लयमेकतां गच्छति / दश
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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