SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 844
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ द्वाविंशः सर्गः। 1541 सेवाके लिए आयी हुई ओषधियों के पल्लवोंको खाता हुआ तथा इसी ( चन्द्रमा ) के अमृतरूप ( पक्षा०-अमृततुल्य मधुर ) जलको पीता हुआ सुखपूर्वक रहता है ! [ यही कारण है कि ओषधिरूप चन्द्रप्रियाओंका भेजा हुआ यह मृग चन्द्रमाके कोडमें ही सदा रहने लगा, वहां से पुनः वापस नहीं गया / कोमल पल्लव तथा मधुर जल मिलनेवाले स्थानमें मृगका सुख पूर्वक रहना और उसे छोड़कर कहीं नहीं जाना उचित ही है ] // 7 // रुद्रेषुविद्रावितमातमारात्तारामृगं व्योमनि वीक्ष्य बिभ्यत् / मन्येऽयमन्यः शरणं विवेश मत्वेशचूडामणिमिन्दुमेणः / / 78 / / रुद्रेति / दक्षयज्ञे वीरभद्रावतारस्य रुद्रस्येषुणा विद्रावितम् / अत एव आर्स तारारूपं मृगं व्योमनि आरासमीपे दूरे वा वीक्ष्य बिभ्यत् त्रस्यन् अयमन्योऽपर एण इन्दुमीशस्य चूडामणिं ज्ञास्वा शरणं विवेश / शिवेन शिरसि स्थापितत्वादयं मान्य इत्येतदाश्रयेण रुद्रान्मामयं रक्षिष्यस्येवेत्याशयेनान्यो मृगश्चन्द्रं शरणं प्रविष्ट इत्यर्थ इत्यहं मन्ये / अन्योऽपि सजातीयं कस्माञ्चिद्भीतं दृष्ट्वा स्वयमपि भीतः सन्कमपि शरणं याति / 'गत्वा-' इत्यपि पाठः। तारामृगस्म रुद्रेषुविद्रावणं काशीखण्डादौ ज्ञातव्यम् // 78 // रुद्र ( कुद्ध शिवजी ) के बाणसे विदीर्ण ( अत एव ) दुःखित तारा (नक्षत्र ) रूप मृगको समीप ( या-दूर ) से ही देखकर डरता हुआ यह दूसरा ही मृग ईश ( सर्व समर्थ शिवजी) के मस्तकस्थ मणिभूत चन्द्रमाको शरण ( अपना रक्षास्थान ) मानकर इसके मध्यमें प्रविष्ट हो गया है, ऐसा मैं मानती हूं। [ लोकमें भी कोई व्यक्ति किसी सजातीय व्यक्तिको किसी के द्वारा पीडित देखकर भयार्त होता हुआ सुरक्षित स्थानमें प्रवेश करता है, अत एव शिवके बाणसे पीडित 'नक्षत्र' रूप मृगको पीडित देखकर शिवजीके मस्तकपर रहनेवाले चन्द्रमाको ( अपने मस्तकपर रखे हुए स्नेहपात्र चन्द्रमाके मध्य प्रविष्ट होनेपर ये मुझे नहीं मारेंगे, इस भावनासे ) अपना सुरक्षित स्थान समझकर दूसरा मृग चन्द्रमामें स्थित हो गया, जो कलङ्करूपसे भासित होता है ] // 78 // ___पौराणिक कथा-कामपीडित ब्रह्माने अपनी कन्या सरस्वतीके साथ सम्भोग करना चाहा तो वह मृगीका रूप धारणकर माग चली और ब्रह्मा भी मृगका रूप धारणकर उसके पीछे दौड़े, यह ब्रह्माका अनुचित व्यवहार देखकर महाक्रोधी शिवजीने मृगरूपधारी ब्रह्माके मस्तक जब बाणसे काट लिया तब वह मृगरूपधारी ब्रह्ममस्तक 'मृगशिरा' नामक तथा शिवजीबाण 'आर्द्रा' नामक नक्षत्रों के रूपमें आकाशमें स्थित हुए और उस ब्रह्मकपालको शिवजीने ब्रह्म इत्या दूर करने के लिए प्रायश्चितरूपमें मिक्षापात्र बनाकर ग्रहण किया। यह कथा स्कन्दपुराणके काशीखण्डमें आयी है। 'शिवमहिम्नस्तोत्र में यह वर्णन भाता है। 1. 'प्रजानाथं नाथ प्रसभमधिकंवा दुहितरंगतं रोहिद्भूतां रिरमयिषु मृष्यस्य वपुषः। धनुष्पाणेर्यात दिवमपि सपत्राकृतममुं वसन्तं तेऽद्यापि त्यजति न मृगव्याधरभसः॥'
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy