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________________ 1528 नैषधमहाकाव्यम् / नानि न्यूनपरिमाणानि न्यूनशीतत्वादिगुणानि कथं वा ? अपि तु-दिनवामनता रात्रिदीर्घतान्यथानुपपत्तेः शिशिरतुदिनापेक्षया च ज्योत्स्नीनामतितमां शीतवप्रका. शवत्वानुपपत्तेश्च शिशिरतुदिनानि छित्त्वा छित्त्वैव तरसारभूतैश्च शकलैश्चन्द्रिकान्विता रात्रयो ब्रह्मणा वर्धिता इत्यर्थः / चन्द्रचन्द्रिकया रात्रिः शीतला धवलतरा च कृतेति भावः / कतै कतम् 'कृती छेदने' इत्यस्मादाभीदण्ये णमुल द्विवचनं च / ज्योत्स्नीः , ज्योतिरस्यामस्तीत्यर्थे 'ज्योत्स्नातमित्रा-' इति साधुकृतात् 'ज्योत्स्ना'-शब्दाद् अण्प्रकरणे 'ज्योत्स्नादिभ्य उपसंख्यानम्' इत्यस्त्यर्थेऽणि डीप // 55 // ___ ब्रह्मा शिशिर ऋतुके दिनोंको काट-काटकर उनके मध्यवर्ती सारभूत श्वेत टुकड़ोंसे चांदनीकी रात्रियों की रचना करते हैं, अन्यथा ये (चांदनीयुक्त रात्रियां ) उन (शिशिर ऋतुके दिनों ) के समान (शीतल ) क्यों हैं और वे (शिशिर ऋतुके दिन ) छोटे क्यों हैं ? [ इस चांदनीकी रात्रियों को शीतल तथा शिशिर ऋतुके दिनोंको छोटा होनेसे अनुमान होता है कि ब्रह्मा शिशिर ऋतुके दिनोंको काट-काटकर उनके सारभूत श्वेत खण्डोंसे चांदनीकी रात्रियों को रचते हैं। चांदनीसे रात्रि शीतल एवं प्रकाशयुक्त हो गयी ] // 55 // इत्युक्तिशेषे स वधूं बभाषे सूक्तिश्रुतासक्तिनिबद्धमौनाम् / मुखाभ्यसूयानुशयादिवेन्दौ केयं तव प्रेयसि ! मूकमुद्रा ? / / 56 / / इतीति / स नलः इत्युक्तिशेषे एवं चन्द्रवर्णनावसाने सूक्तीनां प्रसादादिगुणयु. कानां शोभनवचनानां श्रुते श्रवणे विषये आसक्त्या रसातिशयात्तदेकतानतया बद्धं स्वीकृतं मौनं यया तां तूष्णींभावमास्थितां वधूं भैमी प्रतीदं बभाषे / इति किम् ? हे प्रेयसि ! इन्दौ विषये तवेयं मूकस्येव मुद्रा वाग्निरोधरीतिः किंकारणिका ? स्वमपि किमिति न चन्द्रं वर्णयसीत्यर्थः / मौने स्वयमेव हेतुमुत्प्रेक्षते-मुखस्य चन्द्रकृतवदः नसाम्यस्याभ्यसूया स्पर्धा तज्जन्यान्महतोऽनुशयान्मनोद्वेषादिव / स्वस्पर्धाकारिणो हि वर्णनेऽन्येन क्रियमाणेऽन्योपि कोपात्तष्णीं तिष्ठति, नानुमोदते, स्वयं च न तं वर्णयति / तथा-वन्मुखस्पर्धाकरणसंजातकोपादिवेन्दुं न वर्णयसि नानुमोदसे च किमिति प्रश्नः / नलसूक्तिश्रवणादरकृतं मौनं कोपादिवेत्युत्प्रेक्षितम् / / 56 // इस प्रकार ( 22 / 39-55, चन्द्रवर्णनरूप ) सद्भाषणके अन्तमें वे ( नल ) उक्त सवर्णन सुनने में आसक्त (तल्लीनता) होनेसे मौन दमयन्तीसे बोले-'हे प्रियतमे !' मानों ( तुम्हारे ) मुखके साथ ( चन्द्रके द्वारा स्पर्द्धारूप ) असूया करनेके पश्चात्तापके समान तुम मौन हो क्या ? / [ ऐसे सुन्दर चन्द्रको देखकर तुम चुप क्यों ? तुम्हें भी इसका वर्णन करना चाहिये, परन्तु वर्णन नहीं करती हो इससे ज्ञात होता है कि सुन्दरतम तुम्हारे मुखके साथ चन्द्रमा स्पर्धा करता है और उसका मैं सराहना करता हूं, इसी द्वेषसे तुम चुप हो / दूसरा भी कोई व्यक्ति अपने साथ असूया करनेवालेके वर्णनको सुनकर पश्चात्ताप या दुषसे चुप रहता है ] / / 56 //
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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