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________________ द्वाविंशः सर्गः 1511 ऊर्ध्वमिति / तमालश्यामलं यद्वयोम दिवा सहस्ररश्मेः सहस्रसंख्यःकरः किरणः, अथ च, हस्तैः ऊवं दूरोचप्रदेशे तमिवासीत् , तन्नभ एवेदं तमालश्यामलमंशुमता विना सायंसमये सूर्यविनाशाद् धारकेण तेन विनाधःपतत्सत् नेदिष्ठतामतितमां नैकठ्यमेति / तमिस्त्रं कुतः कस्मादागतम् ? अपि तु तिमिरं नाम किमपि नास्ति, किंतु निकटीभवद्गनमेव तमिस्रमित्यर्थः। पतद्वयोमेव तमिस्रं कुतो भूमौ निकटता. मेति ? नतु तदतिरिक्तं तमोऽस्तीति वा, अन्यदपि प (त) कस्यचित्कराभ्यामूर्ख धार्यते, तदभावेऽधः पतस्येव / नेदिष्ठताम् , अतिशायने इष्ठनि 'अन्तिकबाढयोःइति नेदादेशः / कुतः, पक्षे साविभक्तिकस्तसिः॥३०॥ ( चारों दिशाओं के अन्धकारका वर्णन करने के उपरान्त अब ऊपरके अन्धकारका वर्णन करते हैं-) दिनने ( कृष्णवर्ण) जिस आकाशको सहस्ररश्मि (सूर्य) की सहस्रों (किरणों, पक्षा०-हाथोंसे ) ऊपरमें मानो धारणकर रक्खा था, वही यह आकाश सूर्यके बिना मानो समीपमें (नीचेकी ओर ) आ रहा है, अन्धकार कहांसे आया ? अर्थात् यह अन्धकार नहीं सूर्याभावमें नीचेकी ओर गिरता हुआ कृष्णवर्ण यह आकाश हो है // 30 // अधोदिग्व्यापि तमो वर्णयतिऊर्ध्वार्पितन्युब्जकटाहकल्पे यद्वयोम्नि दीपेन दिनाधिपेन / न्यधायि तद्भूममिलद्गुरुत्वं भूमौ तमः कज्जलमस्खलत्किम् // 31 // ऊर्चेति / सामर्थ्याद्विधिना ऊवं सूर्यदीपस्यैवोपरि भागे अर्पितो न्युजः कजलधारणार्थमधोमुखो महान् कटाहः कपरं तरकल्पे तत्तव्ये कृष्णतमे व्योग्नि अधिकरणे प्रकाशकारिणा कज्जलधारणार्थेन दिनाधिपेनैव दीपेन करणेन यत्कज्जलं न्यधायि न्य. स्तम् , तत्कजलमेव तमो भूम्ना क्रमसंजातबाहुल्येन कृत्वा मिलद् युक्तं पतना. ख्यकर्मकारणं गुरुत्वं यस्य ताशं सद्भमावस्खलत किम् , अतिभारेण पतितं किम् ? गुरुत्वाद्धि पतनं युक्तं, तस्कजलमेव भूमौ पतितं किम् ? अपि तु तमो नाम न किंचिदित्यर्थ इति वा / कजलमपि कपरे धृतं क्रमेण बहु भवद्गुरुत्वादधः पतति / 'कटाहः कर्परे तथा' इति निघण्टुः / ईषदसमाप्तौ कल्पप् // 31 // ( अब नीचेके अन्धकारका वर्णन करते हैं-) सूर्यरूपी दीपने अधोमुखकर ऊपर रखे गये कटाह (विशालतम कड़ाह ) के समान आकाशमें जिस अन्धकाररूप काजलको छोड़ा, क्रमशः सञ्चित होते रहनेसे अधिक भारी हुआ वही अन्धकाररूप काजल पृथ्वीपर गिर पड़ा है क्या ? / [जिस प्रकार दीपके ऊपर में उलटकर रखे हुए ढक्कनमें कजल एकत्रित होतेहोते बहुत होनेपर भारीपनसे एकाएक नीचे गिर पड़ता है, उसी प्रकार सूर्यरूपी दीपकके ऊपर आकाशरूपी विशाल ढक्कनको ब्रह्माने उलटकर रख दिया था और उसमें बहुत एकत्रित कजल मारी होनेसे पृथ्वीपर गिर पड़ा है क्या ? ऐसी श्रद्धा होती है ] // 31 //
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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