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________________ द्वाविंशः सर्गः। 1499 आदाय दण्डं सकलासु दिक्षु योऽयं परिभ्राम्यति भानुभिक्षुः / अब्धौ निमजन्निव तापसोऽयं संध्याभ्रकाषायमधत्त सायम् // 12 // आदायेति / योऽयं भानुरेव भिक्षुः परिव्राट् दण्डं पारिपार्श्विकमेव वैणवयष्टिमादाय सकलासु दिक्षु परिभ्राम्यति सोऽयं तापसः परिवाट् सायंकाले अब्धौ निमज्जन् पातालं प्रविशन् , अथ च-बहुजले जलाशये स्नानं कुर्वन् संध्यायामभ्रं गगनं तदेव कषायरक्तं वस्त्रमधत्तेव उपरि स्वस्योxभागे, अथ च,-उच्चतटस्योपरि दण्डस्योपरि वा निजमस्तकोपरि वा धृतवानिव / एवं यतिरपि बहुकालावस्थानस्य निषिद्धत्वादुक्तलक्षणः सन् परिभ्रमणे कषायं वस्त्रं धारयति, काषायमिव संध्या शोभते इत्यर्थः / 'माठरः पिङ्गलो दण्डश्चण्डांशोः पारिपार्श्विकाः', 'भिक्षुः परिवार कर्मन्दी' इत्यमरः / काषायम् , 'तेन रक्तम्-' इत्यण // 12 // ___ जो यह सूर्यरूपी मिक्षु अर्थात संन्यासी दण्ड (बांसका दण्ड, पक्षा०–'दण्ड' नामक पारिपाश्विक ) को लेकर सम्पूर्ण दिशाओं में घूमता है, वह ( सूर्यरूप ) यह तपस्वी अर्थात संन्यासी सायङ्काल में समुद्र (पक्षा०-समुद्रवत् अगाध जलवाले जलाशयादि ) में डूबता ( अस्त होता, पक्षा-स्नान करता ) हुआ-सा सन्ध्याके (रक्तवर्ण) आकाशरूप काषाय (गेरुआ ) वस्त्र धारण करता है // 12 // अस्ताचलेऽस्मिन्निकषोपलाभे संध्याकषोल्लेखपरीक्षितो यः / विक्रीय तं हेलिहिरण्यपिण्डं तारावराटानियमादित द्यौः // 13 // अस्तेति / यः सूर्यः अस्मिन्प्रतीच्या वर्तमाने निकषोपलाभे सुवर्णपरीक्षापाषाण. तुल्येऽस्ताचले संध्याराग एव कषोल्लेखः घर्षणोल्लेखस्तेन परीक्षितः / इयं चौस्तं हेलिं सूर्यमेव हिरण्यपिण्डं विक्रीय विनिमयेन कस्मैचिहत्त्वा तारारूपान्वराटान् कपर्दकानादित जग्राह / उत्तमं सुवर्ण रक्तपीतं भवति / तथा च रक्तपीतसुवर्णगोलकस्य निकषपरीक्षितसुवर्णरेखेन संध्या दृश्यते, ताराश्च वराटा इव दृश्यन्त इत्यर्थः / 'यौः' इति लोकव्यवहारानभिज्ञत्वद्योतनाथ स्त्रीलिङ्गनिर्देशः / स्त्री हि सुवर्ण दत्वा मूर्खतया वराटकान्गृह्णाति, धूर्तेन वन्च्यते च / वराटकव्यवहारे देशे सुवर्णमपि दत्त्वा वरा. टका एवं गृह्यन्ते // 13 // - कसौटीके पत्थरके समान इस अस्ताचलपर सन्ध्या (सायंकालकी लालिमा ) रूप घर्षणरेखासे जिस ( सूर्यरूप सुवर्णपिण्ड ) की परीक्षा की गयी, उस सूर्यरूपी सुवर्णपिण्डको बेचकर यह द्यौ अर्थात् आकाश तारारूपी कौड़ियोंको लिया। [जिस प्रकार कोई मूर्खा स्त्री कसौटीके पत्थरपर घिसकर परीक्षित सुवर्णपिण्डको कौड़ियों को लेकर किसी चतुर व्यक्तिके लिए बेच देती है, उसी प्रकार आकाशने तारारूप कौड़ियों को लेकर निकषरूप अस्ताचलपर सुपरिक्षित सूर्यरूप सुवर्णपिण्डको किसीके हाथ बेच दिया है। जहांपर रुपयेके स्थानमें कौड़ियोंका व्यवहार होता हैं, वहांपर सुवर्णको बेर 64 नै० उ०
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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