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________________ द्वाविंशः सर्गः। 1463 टानां कूजनेनोन्नमितशिखरवं जातिः / ते च यामान्ते फूजन्ति / सायंसमये कूजना. दुत्फुल्लशिखावृन्दसंबन्धादरुणीभवनसंभवाथ यामान्तेत्यायुक्तम् / 'पक्कणःशबरालयः' 'गृहासक्ताः परिमृगाश्छेकास्ते गृहकाश्च ते' इत्यमरः / 'पेटकं पुस्तकादीनां मञ्जषायां कदम्बके' इति विश्वः॥५॥ अस्ताचल के शिखरपर स्थित शबर-गृहसमूहों में पाले गये मुर्गों के समूहों के सायङ्कालमें कूजने ( शब्द करने ) से ऊपर उठे हुए (चर्ममय रक्तवर्ण) शिखा-समूहोंने इस पश्चिम दिशाको एकाएक लाल कर दिया है क्या ? [ बोलते समय मुर्गोका ऊपर शिर उठाना स्वभाव होता है ] // 5 // पश्य दूतास्तंगतसूर्यनिर्यत्करावलीहैङ्गलवेत्रयात्र | निषिध्यमानाहनि संध्ययापि रात्रिप्रतीहारपदेऽधिकारम् / / 6 / / पश्येति / संध्यया अत्र सायंसमये चंद्रस्य नायिकाया रात्रेः संबन्धिनः प्रतीहा. रस्य दौवारिकस्य पदे अधिकारमास्पदमपि पश्य विलोकय / किंभूतया? द्रुतं शीघ्र. मस्तंगतस्य सूर्यस्य निर्यती बहिनिर्गच्छन्ती करावली किरणपरम्परैव हैङ्गुलं हिङ्गु. लाख्येन रक्षकरक्तद्रव्यविशेषेण रक्तं वेत्रं दण्डविशेषो यस्यास्तया। किंभूते पदे ? निषिध्यमानं निवार्यमाणप्रवेशमहो दिनं यस्मिन् / स्त्रिया हि दौवारिकी स्येव युक्तेति संध्यैव रात्रेदौवारिकी जातेत्यर्थः / सूर्योऽस्तमितः, दिनं गतम् ; रात्रिरागता, इति सायंसंध्यया ज्ञाप्यत इति भावः। दौवारिक्यपि हैङ्गुलवेत्रपाणिः सती प्रविशन्तं कमपि प्रतिषेधयति / 'तिर्यकरा-' इति तिर्यञ्चस्तिरप्रसारिणश्च ते करा. श्वेति / अहनीत्यत्र तत्पुरुषत्वाभावाहजभावः // 6 // शीघ्र ( अमी) अस्त हुए सूर्यसे निकलते हुए किरण-समूहरूपी हिङ्गलसे रंगे हुए बेंत ( की छड़ी) वाली सन्ध्या के द्वारा रोका जा रहा है दिन जिसमें, ऐसे रात्रिके द्वारपालके पदपर अधिकारको देखो / [ स्त्रीका द्वारपाल स्त्रीको ही होना उचित होनेसे रात्रिने सन्ध्याको द्वारपाल बनाया है, तथा लालरंगकी छड़ीवाली वह सन्ध्या दिनरूप परपुरुषको चन्द्रमाकी नायिका रात्रिके पास आनेसे निषेध करती हुई अपना अधिकार पालन कर रही है। सूर्यास्त हो गया, दिन बीत गया, रात आ गयी, यह सब सायङ्कालकी सन्ध्यासे ज्ञात हो रहा है ] // 6 // इदानीं संध्यानक्षत्रसंयोगं वर्णयति महानटः किं नु सभानुरागे संध्याय संध्यां कुनटीमपीशाम् / तनोति तन्वा वियतापि तारश्रेणिस्रजा सांप्रतमङ्ग ! हारम् / / 7 / / महानट इति / अङ्ग ! हे भैमि ! महान् संध्योपासनादिविषयेऽतिप्रशस्तः, तथा,अटति गच्छतीत्येवंभूतः कालः स प्रकृतः सायंतनः, यद्वा,-महान्परमेश्वरो नटो नर्तको यस्मिन् / संध्याकाले हीश्वरो नृत्यति / स प्रकृतः सायंसंध्यासमयो भानो..
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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