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________________ एकविंशः सर्गः। 1477 क्षमायाञ्च इत्यस्मात् भौवादिकात् 'कर्मणि यकि रूपम् / 'निज्यते'' इति पाठेपरिष्क्रियते, उज्ज्वलीक्रियते इत्यर्थः / 'णिजिर' शौचे' इत्यस्य रूपम् / शाणिका हि शाणचक्रे इष्टकाचूर्ण दत्वा दत्त्वा कृपाणादिकमुत्तेजयन्ति इति लोके दृश्यते // 134 // चक्रवाक-मिथुन ( चकवा-चकईकी जोड़ी ) को पृथक् ( पक्षा०-विदीर्ण) करनेकी इच्छा करनेवाला ब्रह्मा ( या-दैव ) काल ( सायं = सन्ध्यासमय, पक्षा०-काल = श्यामवर्ण, अथ च-घातक ह'नेसे कालरूप ) कृपाणको, किरणस्थ ( पक्षा०-चरणद्वयसे दबाये गये ) रक्तवर्ण ईंट के धूलिकणोंसे लाल, रश्मि ( सूर्यरथ के घोड़ोंकी रास, पक्षा०-शाण खीचने. वाली रस्सी ) को पकड़े हुए 'अरुण' ( नामक सूर्यसारथि ) से घुमाये जाते हुए और दण्ड ( सूर्यके पारिपाश्विक-विशेष, पक्षा०-शाणकी रस्सी जिसमें बाँधी गयी है, उस डण्डे = लम्बे मोटे काष्ठ-विशेष ) से युक्त सूर्यरूपी शाणचक्रपर रखकर तीक्ष्ण करता है क्या ? / [ लोकमें भी किसी पदार्थको चीरने या काटने के लिए लौहमय होनेसे श्यामवर्ण तलवारको, पैरोंसे दबायी गयी ईटके धूलिकणसे लाल, रस्सी पकड़कर किसी व्यक्तिसे खींचे जाते हुए मोटे काष्ठयुक्त शाणपर रखकर तेन किया जाता है / नलसे कहे गये दमयन्तीके इन ( 21131-134 ) वचनोंसे कलिप्रयासकृत मावी विरहका आभास होना सूचित होता है। इति स विधुमुखीमुखेन मुग्धालपितसुधासवमपितं निपीय / स्मितशबलवलन्मुखोऽवदत् तां स्फुटमिदमीहशमीदृशं यथाऽत्थ / / ___ इतीति / सः नलः, इति अनेन प्रकारेण, विधुमुख्याः चन्द्राननायाः, दमयन्त्याः , मुखेन वदनेन, अर्पितं दत्तम, मुग्धं सुन्दरम् , आलपितमेव भाषितमेव, सुधासवं पीयूषवत् स्वादु मद्यम् , निपीय आस्वाद्य, स्मितेन ईषद्धास्येन, शबलं चित्रम् , रजितमित्यर्थः / वलत् चलच्च, भैमी प्रतिवक्तुमुपक्रमादिति भावः / मुखं वदनं यस्य सः तादृशः सन् , तां दमयन्तीम् , अवदत् अवोचत् / अन्येऽपि कामिनः यथा कामिनीमुखार्पितासवं सादरं पिबन्ति, ततः वलितमुखाः सहासं किश्चित् वदन्ति च तद्वदिति भावः / किमित्याह-हे प्रिये ! यथा यादृशम् , यदित्यर्थः / आस्थ क्षे, स्वमिति शेषः, इदम् एतत् , ईदृशम् ईदृशम् एवम्भूतमेवम्भूतम्, स्फुटं व्यक्तमेव, सत्यमेवत्यर्थः // 135 // चन्द्रमुखो (दमयन्ती ) के मुखसे समर्पित मनोहर भाषणरूप अमृतवत मधुर मद्यको अच्छी तरह पीकर (सुनकर ) स्मितसे युक्त मुखको दमयन्तीकी ओर किये हुए अर्थात् दमयन्तीकी ओर मुखकर मुस्कुराते हुए नल दमयन्तीसे बोले-'जैसा तुम कहती हो' यह ऐसा ही है / [ लोकमें भी कामी लोग प्रियाके उच्छिष्ट मद्यको पीकर नशे में प्रियाकी ओर मुखकर परिहास करते हैं ] // 135 // 1. अनेन व्याख्यानेन 'निज्यते' इति पाठं स्वीकृत्य 'नकारे तकारभ्रान्त्यैव 'तिज्यते' इति पठन्ति, तदसत्' इत्येवं 'प्रकाश' कृदुक्तिरेवासतीति बोध्यम् /
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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