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________________ द्वादशः सर्गः। 766 नहीं होनेसे भेद बना रहे अर्थात् नील कमल एवं तुम्हारे नेत्रों के समान होनेपर भी तुम्हारे नेत्रों के जलमें प्रतिबिम्ब होनेपर नील कमलोंमें नाल रहनेसे दोनों पृथक्-पृथक् मालूम पड़ें), उस ( तडाग) की जलदेवताओंके अधिकार ( व्यापार या स्वामित्व ) में तुम्हारे शरीरके प्रतिबिम्ब का हो अर्थात् उस तडागके जलमें प्रतिबिम्बित तुम्हारा शरीर उसके जलदेवताओंके समान ज्ञात हो और उस ( तडाग ) के विकसित कमलोंके समूह ( पक्षा०स्वामित्व ) में तुम्हारे मुखका अभिषेक हो अर्थात् तुम्हारा मुख उसमें विकसित कमलोंसे अतिशय सुन्दर एवं सुगन्धित होने के कारण उन कमलोंका राजा बने। [ तुम्हारे नेत्र, शरीर तथा मुख क्रमशः नील कमल, जलदेवता तथा विकसित कमलोंसे भी अधिक श्रेष्ठ हैं ] // 103 // एतत्कोतिविवर्त्तधौतनिखिलत्रैलोक्यनिर्वासितैविश्रान्तिः कलिता कथासु जरतां श्यामैः समग्रैरपि / जज्ञे कीर्तिमयादहो ! भयभरैरस्मादकीर्तेः पुनः सा यन्नास्य कथापथेऽपि मलिनच्छाया बबन्ध स्थितिम् / / 104 // एतदिति / एतस्य राज्ञः, कीर्तिविवत्तैः यशोविस्तारैः, धौतात् क्षालितात् , निखिलत्रैलोक्यात् निर्वासितैः निष्कासितैः, समग्रैः समस्तैरपि, श्यामः श्यामवस्तुभिः, जरतां वृद्धानां, पुरुषाणामिति शेषः, 'प्रवयाः स्थविरो वृद्धो जीनो जीर्णो जरन्नपि' इत्यमरः। 'जीर्यतेरतृन्' इत्यतृन्-प्रत्ययः कथासु विश्रान्तिः अवस्थानं, कलिताः स्वीकृता; एतद्यशोव्याप्तया श्यामवस्तुजातं प्राचीनजनानां कथमानेषु शेषमासांदित्यर्थः; अकीर्तेः अपकीर्तेः, पुनः कीर्तिमयात् कीर्त्यात्मकात् , अस्मान्नृपात् , भयभरैः भयराशिभिः, जज्ञे जातं, भावे लिट कीर्त्यकीयोर्विरोधेन अकीर्तिः कीर्तिमयात् अस्मात् सुतराम् अभैषीदित्यर्थः, कुतः ? यत् यस्मात् , मलिनच्छाया सा अकीर्तिः, अस्य कथापथेऽपि एतत्सम्बन्धिवाङ्मार्गेऽपि, स्थितिं न बबन्ध अवस्थितिं न प्राप, अकीर्तिलेशोऽप्यस्य नास्तीत्यर्थः, यत एतत्कथोदये अकीर्तिकथाऽपि न श्रयते इति भावः // 104 // इस ( मगधेश्वर ) की कीर्तिके विवर्त (विशेष स्थिति या परिणाम ) से धोये गये तीनों लोकोंसे निकाले गये, संसारके सब श्याम ( काले वर्णवाले कज्जल आदि ) पदार्थ वृद्धजनोंकी कथाओं में विश्रान्ति पा लिये अर्थात् बड़े-बूढोंके कहनेसे लोगोंको ज्ञात होता था कि पहले संसारमें काले पदार्थ भी थे, किन्तु वर्तमान समयमें कोई काला पदार्थ नहीं रह गया तथा कीर्तिबहुल अर्थात् मंहाकीर्तिमान् इस राजासे अकीर्तिको अत्यधिक भय हो गया ( बहुत कीर्तिवालेसे एक कीर्तिका भय होना उचित ही है ), क्योंकि मलिन कान्तिवाली वह ( अकीर्ति ) इस ( मगधनरेश ) के कथामार्ग ( वर्णन-प्रसङ्ग ) में भी आश्रय नहीं पायी यह आश्चर्य है अर्थात् इसके वर्णनके समयमें अकीर्तिके सर्वथा अभाव होनेसे कीर्तिका ही वर्णन
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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