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________________ 1410 नैषधमहाकाव्यम् / लाषा प्रकटप्रकाशसूर्यतेजःप्रकाशने तमसः अभिलाष इव अत्यन्तमशोभन एवेति भावः। तेजोनाश्यस्य तमशः तेजः प्रकाशाभिलाषः यथा विफल एव, तथा स्वप्रका• शनाश्याया जडतायाः अपि तं प्रति प्रकाशनात्मकवर्णनोद्यमः विफल एवेति तात्पर्यम्॥ हे स्वयं प्रकाशमान ! मूर्ख ( अविद्यासे आवृत ) यह 'जन अर्थात् मैं ( या-लोक ) जो तुम्हारा वर्णन करना चाहता है, वह सूर्य तेजको अन्धकारद्वारा प्रकाशित करनेकी इच्छा ( के समान ) नहीं है क्या ? / [ स्वयं प्रकाशमान सूर्य के तेजको जिसप्रकार अन्धकार प्रकाशित करनेकी इच्छा करे तो वह उसकी जड़ता ही होगी, उसी प्रकार स्वयं प्रकाशमान विष्णु भगवान्के वर्णनको भी स्तुतिकर प्रकाशित करना मेरी (या-लोगोंकी) मूर्खता ही होगी ] // 51 // मैव वाङ्मनसयोर्विषयो भूस्त्वां पुनर्न कथमुद्दिशतां ते / उत्कचातकयुगस्य घनः स्यात् तृप्तये घनमनाप्नुवतोऽपि // 52 / / - मेति / हे विष्णो ! वाङ्मनसयोः वाक्यचेतसोः / 'अचतुर-' इत्यादिना साधुः / विषयः गोचरः, मैव भूः नैव भव, स्वमिति शेषः। 'यतो वाचो निवर्तन्ते अप्राप्य मनसा सह' इति श्रुतेरिति भावः / पुनः तथाऽपि, ते वाङमनसे, स्वां भवन्तम् , कथं केन हेतुना, न उद्दिशताम् ? न लक्ष्यताम् ? स्वामुद्दिश्य न प्रवर्त्ततामित्यर्थः / अपि तु उद्दिशतामेवेति भावः / 'दिश अतिसजने' इत्यस्माद्धातोलोटि रूपम् / तथा हि धनं मेघम् , अनाप्नुवतः अलभमानस्य अपि, दूरावस्थितत्वादिति भावः / उस्कयोः मेघार्थमेव उत्सुकयोः, चातकयोः सारङ्गयोः, युगस्य द्वन्द्वस्य, चातकमिथुनस्येत्यर्थः। तृप्तये जलदानेन प्रीतये, घनः मेघः स्वयमेव, स्यात् भवेत् / चातकयुगस्य अविषयोऽपि मेघो यथा स्वयमेव तत्तप्तये उदेति तथा वाङ्मनसयोर. गोचरोऽपि त्वं स्वयमेव मत्तप्तये स्याः, अतोन वर्णनोद्यमोमयात्यज्यते इति निष्कर्षः॥ ( यद्यपि ) तुम वचन तथा मनके विषय नहीं हो अर्थात् न तो तुम्हारा वर्णन ही किया जा सकता है और न ध्यान ही; तथापि वे दोनों ( वचन तथा मन ) तुमको लक्ष्यकर क्यों नहीं प्रवृत्त होवें अर्थात् लोग तुम्हारी स्तुति तथा ध्यान क्यों नहीं करें; क्योंकि मेघको नहीं पाते हुए भी उत्कण्ठित चातकके मिथुन ( जोड़ी ) की तृप्ति के लिए मेघ होता है। [जिस प्रकार चातक-मिथुन मेघको नहीं पाकर भी उसका उद्देश्य कर उससे जल चाहता है तो मेघ उसे जल देकर तृप्त करता ही है, उसी प्रकार यद्यपि आपका वर्णन तथा ध्यान क्रमशः वचन तथा मनके द्वारा नहीं किया जा सकता तथापि आपको लक्ष्यकर प्रवृत्त होनेवाले उनको भक्तवत्सल आप अवश्यमैव तृप्त करते ही हैं, अत एव मैं वचन तथा मनस्ते आपकी स्तुति तथा ध्यान करता हूँ ] // 52 // छद्ममत्स्यवपुषस्तव पुच्छास्फालनाज्जलमिवोद्धतमब्धेः / श्वैत्यमेत्य गगनाङ्गणसङ्गादाविरस्ति विबुधालयगङ्गा / / 53 / /
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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