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________________ 1400 नैषधमहाकाव्यम् / पौराणिक कथा-अपनी कन्या 'सन्ध्या' के पीछे कामवशीभूत होकर अनुगमन करते हुए ब्रह्माके पांचवें शिरको शिवजीने काट दिया / तदनन्तर ब्रह्मवधजन्य प्रायश्चित्त-विधानार्थ भिक्षाके लिए निरन्तर उसे हाथमें धारण किया / नीलनीररुहमाल्यमयीं स न्यस्य तस्य गलनालविभूषाम् / स्फाटिकीमपि तनूं निरमासोन्नीलकण्ठपदसान्वयतायै / / 33 // नीलेति / सः नलः, तस्य हरस्य, नीलनीररुहमाल्यमयीम् इन्दीवरमालारूपाम्, गलनालस्य कण्ठदेशस्य, विभूषां भूषणम्, न्यस्य समl, स्फाटिकीं स्फटिकमयीम् अपि, तनूं शरीरम् , नीलकण्ठः इति पदस्य शिवस्य नीलकण्ठ इति संज्ञावाचकस्य शब्दस्य, सान्वयताये अन्वर्थत्वाय, नीलः कण्ठो यस्य इति विग्रहस्य सार्थकतासम्पादनायेत्यर्थः / निरमासीत् कल्पितवान् / मा माने इति धातोरदादिकाल्लुङ् // 33 // उस ( नल ) ने नीलकमलोंकी मालाको शिवजीके कण्ठमें पहनाकर स्फटिकमणिमयी ( अतः श्वेतवर्णवाली ) भी शिवप्रतिमाको 'नीलकण्ठ' ( नीले कण्ठवाले ) शब्दकी सार्थकताके लिए नीलकण्ठरूप विशिष्ट भूषणवाली * बना दिया। [शिवप्रतिमा स्फटिकमणिकी होनेसे पहले श्वेतवर्ण थी, किन्तु शिवको 'नीलकण्ठ' ( नीले कण्ठवाला) होनेसे उनकी प्रतिमामें भी नीलकण्ठ होने पर ही शिववाचक 'नीलकण्ठ' शब्दकी सार्थकता होती है, ऐसा समझकर नलने नीलकमलोंकी माला उस स्फटिकमणिमयी श्वेतवर्ण शिवप्रतिमाके कण्ठमें डालकर उस 'नीलकण्ठ' शब्दको सार्थक कर दिया। नलने स्फटिकमयो 'शिवजीकी प्रतिमा नीलकमलोंकी माला पहनायी ] // 33 / / प्रीतिमेष्यति कृतेन ममेहकर्मणा पुररिपुर्मदनारिः / तत्पुरः पुरमतोऽयमधाक्षीद् धूपरूपमथ कामशरञ्च / / 34 // प्रीतिमिति / पुररिपुः त्रिपुरारिः, मदनारिः कामशत्रुश्च, शम्भुरिति शेषः / कृतेन विहितेन, मम मे, ईदृक्कर्मणा गुग्गुलुपर्यायकपुरदाहेन कर्पूरपर्यायककामशरदाहेन च कर्मणा, प्रीति सन्तोषम, एष्यति प्राप्स्यति, अतः अस्मादेव कारणात् , अयं नलः, तस्य पुररिपोः मदनारेश्व, पुरः अग्रतः, यथाक्रमं धूपन्याजम् , पुरं गुग्गुलुम् असुरपुरञ्च / 'गुग्गुल्लो कथितः पुरः' इति विश्वः / अथ अनन्तरम्, कामशरं कपूर मदनबाणञ्च, अधाक्षीत् दग्धवान् / नलः धूपदानरूपां पूजां चकारेति निष्कर्षः // 34 // पुररिपु ( पुरोंके शत्रु ) तथा मदनारि (कामदेवके शत्रु शिवजी ) मेरे ऐसे कार्यसे प्रसन्न होंगे ( मानों ऐसा मनमें विचारकर ) नलने उन (शिवजी ) के सामने धूपरूपको ग्रहण किये हुए पुर अर्थात् गुग्गुलु तथा कामबाण अर्थात् कर्पूरको जलाया। [ स्वामी. शिवजीकी प्रसन्नताके लिए उनके भक्त नलका उनके शत्रु 'पुर' (गुग्गुलु ) तथा ! 'कामबाण' (कर) को जलाना उचित ही है। लोकमें भी कोई व्यक्ति स्वामीको प्रसन्न करने के लिए
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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