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________________ 704 नैषधमहाकाव्यम् / का चिरकाल तक क्यों नहीं आस्वाद कराती हो अर्थात् करावो ( इसके मुखको देखो)। [ चकोरजिह्वा इस ऋतुपर्ण के मुखचन्द्रकी चन्द्रिकाका पान किसी प्रकार नहीं करे क्योंकि चकोर जिह्वा सत्य चन्द्रचन्द्रिकाका ही पान करती है असत्य चन्द्रचन्द्रिकाका नहीं और इस ऋतुपर्णके मुखचन्द्रकी चन्द्रिकाके असत्य होनेसे चकोर जिह्वा पान नहीं करती तो मुझे इस विषयमें कुछ नहीं कहना है, किन्तु इसके मुख चन्द्रचन्द्रिकाके असत्य होनेसे चकोरजिह्वाके पान नहीं करने पर भी अतिशय सुन्दर एवं हमारे द्वारा वर्णन करने में अशक्य होनेसे आह्लादक सौन्दर्यका नेत्रको प्रत्यक्ष रूपसे दिखलाना तुम्हें उचित है, अतः तुम वैसा करो। अथवा-जिह्वाके द्वारा थोड़ी-सी वस्तुका ही स्वाद लेना सम्भव होनेसे इस ऋतुपर्ण राजाकी विशालतम मुखचन्द्रचन्द्रिका आस्वादन चकोरजिह्वा भले न लेवें, किन्तु छोटे नेत्रोंसे अतिशय विशाल वस्तुका ग्रहण करना ( देखना ) सरल है तो फिर तुम्हारे मुखगत विशालतम नेत्रों द्वारा इस विशालतम मुख चन्द्रचन्द्रिकाका आस्वाद करना तो अत्यन्त सरल होगा, अत एव इसके मुखचन्द्रकी चन्द्रिकाको तुम्हें दिखलानी चाहिये। चकोरके ही नेत्र तुम्हारे मुख का स्पर्श करते हैं अत एव ये तुम्हारे मुखगत नेत्र अत्यन्त रमणीय, चन्द्रिकापान करने के योग्य तथा देखने में समर्थ हैं ] // 6 // अपां विहारे तव हारविभ्रमं करोतु नीरे पृषदुत्करस्तरन् / कठोरपीनोच्चकुचद्वयीतटे' त्रुटत्तरः सारवसारवोर्मिजः // 7 // अपामिति / हे भैमि ! तव अपां विहारे अनेन सह जलक्रीडायां, जलक्रीडाकाले इत्यर्थः, नीरे जले, तरन् प्लवमानः, सारवेषु आरवसहितेषु, सारवेषु सरयूभवेषु, ऊर्मिषु जातः 'देविकायां सरवाश्च भवे. दाविकसारवौ' इत्यमरः। 'दाण्डिनायन-' इत्यादिना निपातनात् साधुः, पृषदुस्करो जलबिन्दुसन्दोहः, कठोरे कठिने, पीने पीवरे, उच्चे उन्नते, कुचद्वयीतटे त्रुटत्तरः विशीर्यमाणः सन् , त्रुटदिति तौदादिका त्रुटधातोः शतरि, हारविभ्रमं मुक्ताहारभ्रान्ति, करोतु जलक्रीडावशात् विच्छिन्नस्तव मुक्ताहार इव शोभमानः सन् पश्यतो लोकस्य भैमीहारश्छिन्नः किमयमिति भ्रान्ति जनयतु इति भावः। भ्रान्तिमदलङ्कारः // 7 // . तुम्हारे जल-विहार में जलपर तैरता हुआ तथा छिन्न-भिन्न होता हुआ शब्द ( कलकल ध्वनि ) करते हुए सरयू नदोके तरङ्गोंसे उत्पन्न जल-बिन्दु-समूह ( तुम्हारे ) कठोर विशाल तथा उन्नत स्तनद्वयके किनारे पर हार (मुक्तामाला ) के भ्रमको करे। ( पाठा०कठोर........."किनारेपर छिन्न-भिन्न होता हुआ सरयू'"बिन्दु-समूह हारके भ्रमको करे / ) [ जलक्रीडाके समय तुम्हारे कठोर, विशाल तथा ऊँचे स्तनोंसे टकराकर कलकल मधुर ध्वनि करती हुई सरयू नदीके तरङ्गसे उत्पन्न बिन्दु-समूहको देखकर लोगोंको तुम्हारी मुक्ताहारकी विशिष्ट भ्रान्ति ( या विलास ) को पैदा करे। 'विहार' ( हारशून्य) 1. 'तरे' इति पा०।
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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