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________________ विशः सगः। 1345 तदध्येहि मृषोद्यं मां हित्वा यच्च गता सखीः। तत्रापि मे गतस्याग्रे लीलयैवाच्छिनस्तृणम् // 8 // तदिति / हे प्रिये ! मृषोद्यं मिथ्याभाषिणम् , किमपि तव अप्रियकार्य कृत्वा नाहमेतत् कृतवानिति कथयन्तमित्यर्थः / मां नलम्, हित्वा विहाय, सखीः वयस्याः, सखीसमीपमित्यर्थः / गता प्रयाता, त्वमिति शेषः / तत्रापि सखीसमीपेऽपि गतस्य उपस्थितस्य, मे मम, अग्रे सम्मुखे, लीलया विनोदेन एव, यत् तृणं शुष्कयवसम् , अच्छिनः खण्डितवती। बाला हि अन्योऽन्यविच्छेदसूचकं तृणच्छेदनं कुर्वन्ति, तृणद्वयं यथा विच्छिन्नं जातं तथा आवामपि चिरं विच्छिन्नौ इति ज्ञापनार्थमिति भावः / तत् तादृशं चेष्टितम् , अध्येहि स्मर / अधिपूर्वस्य इकि स्मरणे इति धातोरदादित्वाल्लोटि ह्यादेशः॥ 88 // (किसी तुम्हारे अप्रिय कार्यको करके 'मैंने यह कार्य नहीं किया ऐसा कहनेसे ) असत्यमाषी मुझको छोड़कर ( क्रोधसे ) सखियों के पास गयी हुई तुमने वहां भी पहुंचे हुए मेरे सामने अर्थात् मुझे दिखाकर लोलासे ही तृणको जो तोड़ दिया उसे तुम स्मरण करो। [सखीसमूहने तो यह दमयन्ती क्रीडावश ही इस तृणको तोड़ती है, किसी अन्य विशेष अभिप्रायसे नहीं' ऐसा समझा, किन्तु तुमने 'इस तृणके समान हमारा तुम्हारा सम्बन्ध. विच्छेद हो गया' इस आशयसे उस तृणको तोड़ा। परस्परमें विरोध हो जाने पर बालक भी 'आजसे हमारा तम्हारा कोई सम्बन्ध नहीं रहा' इस प्रकार कहते हुए तृणको तोड़ते हैं, अत एव नववयस्का दमयन्तीका भी वैसा करना उचित ही था / / 88 // स्मरसि प्रेयसि ! प्रायस्तद् द्वितीयरतासहा / शुचिरात्रीत्युपालब्धा त्वं मया पिकनादिनी ? || 86 // स्मरसीति / प्रेयसि ! प्रियतमे ! द्वितीयस्थ वारद्वयकृतस्य, रतस्थ सुरतस्य, असहा दुर्बलत्वात अक्षमा, अन्यत्र-अल्पपरिमिततया .एववारसम्भोगेनैव अवसि. तत्वात अपर्याप्ता, पिकवत् कोकिलवत् मधुरम् , नदति भाषते इति पिकनादिनी, अन्यत्र-पिकनादः कोकिलध्वनिः अस्ति अस्यामिति पिकनादिनी, त्वं भवती, प्रायः बाहुल्येन, मया नलेन, शुचिरात्री ग्रीष्मरात्री, ग्रीष्मकालिकरात्रिस्वरूपा इत्यर्थः / 'कृदिकारादचिनः' इति ङीष् / इति एवम् उक्त्वा, यत् उपालब्धा तिर. स्कृता, तत्कल्पाऽसि इत्याक्षिप्ता इत्यर्थः। असीति शेषः / तत् स्मरसि ? अध्येषि किम् ? // 89 // 'हे प्रियतमे ! ( अल्पवयस्का होनेसे ) द्वितीय बार किये गये सुरतको नहीं सहनेवाली तुमको मैंने कोकिल जिसमें बोलती है ऐसी (पक्षा०-पिकके समान मधुरभाषिणी) ग्रीष्मकी रात्रि कहकर उपालम्म दिया था, यह तुम स्मरण करती हो ? [ ग्रीष्मकालकी रात्रिमें भी वसन्तकालके आसन्नकालमें ही समाप्त होनेसे कोकिलका बोलनेका वर्णन करना
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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