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________________ विंशः सर्गः। 1325 __ 'कां नामन्त्रयते' इति श्लोके यदुक्तं तस्योत्तरमाह--मनसेति / अयम् इति हस्तेन पुरोवर्तिनिर्देशः, सखीकण्ठः भैमीगलनालः, मनसा अन्तःकरणेन, भवतो नलस्य, नामैव संज्ञा एव, कामसूक्तं कामाविर्भावनाय कामदेवप्रकाशकप्रधानमन्त्रः, तस्य जपः पुनः पुनरुच्चारणमेव, व्रतं नियमः अस्य अस्तीति तद्बती सन् , 'साहस्रो मानसो जपः' इति स्मृतेः सर्वजपानां मानसिकजपस्य सहस्रगुणत्वात् , नारीणां भत नामग्रहणनिषेधात् वा मनसा इत्युक्तम् , न तु जिह्वया इति भावः / एकावलि. च्छलात् एकयष्टिकमुक्ताहारधारणव्याजात् , अक्षसूत्रं जपसङ्ख्यानार्थम् अक्षमालाम् , चुम्बति स्पृशति, धारयतीत्यर्थः / सखीनामग्रहणस्य कदाचिकत्वात् त्वन्नामग्रहणस्य च नैरन्तर्यात जिह्वया त्वन्नामस्पर्शाभावेऽपि नायमुपालम्भो युज्यते इति भावः॥४७॥ मनसे आपके नामरूप कामसूक्त ( तुम्हारे नामोच्चारणमात्रसे कामोद्दीपन होने के कारण कामोद्दीपक मन्त्र-विशेष ) के जपका व्रती अर्थात् सर्वदा जपनेवाला यह ( पुरोदृश्यमान ) सखीका कण्ठ एकावली ( एक लड़ीवाले मुक्ताहार ) के बहानेसे अक्षमालाको धारण कर रहा है। [ शास्त्रमें शाब्दिक जपकी अपेक्षा मानसिक जपका सहस्रगुणित फल होनेसे तथा पतिके नामका उच्चारण करने का निषेध होनेसे दमयन्तीका कण्ठ मनसे ( जिह्वासे नहीं ) ही आपके नामका सदा जप करता है, अत एव मानो कण्ठने एक लड़ीवाले हाररूप मालाको ग्रहण किया है। इस प्रकार यह दमयन्ती आपके नामका तो सर्वदा मनसे ही जप करती रहती है और हमलोगोंका नाम तो मनसे नहीं-बाह्य जीभसे ही कभी कभी उच्चारण कर देती है, अत एव आपका उक्त उपालम्म उचित नहीं है ] // 47 / / अध्यासिते वयस्याया भवता महता हृदि / स्तनावन्तरसम्मान्तौ निष्क्रान्तौ महे बहिः / / 48 // 'अस्याः पीनस्तन' इत्यादिश्लोकोक्तं वैपरीत्यापादनेन परिहरति-अध्यासिते इति / हे महाराज ! वयस्यायाः सख्याः, हृदि वक्षसि, वक्षोऽभ्यन्तरे इत्यर्थः। महता गौरववता बृहदाकारेण च, भवता त्वया, अध्यासिते अधिष्ठिते सति, समग्रतया आक्रम्य अवस्थिते सतीत्यर्थः / स्तनौ सख्याः कुचद्वयी, अन्तरसम्मान्तौ अभ्यन्तरे अवस्थातुं स्थानमप्राप्नुवन्तौ सन्तो, बहिः हृदयस्य उपरिदेशे, निष्क्रान्ती निर्गतो, इति ब्रमहे कथयामः, सम्भावयामः इति यावत् / भवदध्यासात् प्राक अनिर्गमात् अध्यासादनन्तरञ्च निष्क्रमादिति भावः / अतोऽस्याः हृदयैकशरणः महाराजः एव इति निष्कर्षः // 48 // ___ 'महान् ( गौरवयुक्त, पक्षा०-विशालाकार ) आपके द्वारा इस ( दमयन्ती ) के हृदय में अधिष्ठित होनेपर भीतर में नहीं समाते ( स्थान पाते ) हुए. दोनों स्तन बाहर निकल आये हैं। ऐसा हम कहती हैं / [ पहले दमयन्तीके स्तन बाहर नहीं निकलते थे, किन्तु जबसे आपने इसके हृदयमें निवास किया तबसे उसमें रहनेका स्थान नहीं पा सकने के कारण ही ये स्तन बाहर निकल आये हैं , ऐसा हम समझती हैं। लोकमें भी किसी बड़े व्यक्तिके द्वारा
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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