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________________ विंशः सगः। 1321 कामार्थे प्रयुक्तस्य मनसो भूः उत्पत्तिर्यस्य इति व्युत्पत्तिलभ्यस्य मनोभूपदस्य कलया मन एव भः वसतिस्थानं यस्येति व्युत्पत्या नलार्थ प्रयुज्यमानत्वात् श्लेषवक्रोक्तिरलङ्कारः // 41 // ( अब नलोक्त 'आह स्म'.. ... ( 20 / 29) का उत्तर तीन श्लोकों ( 20 / 41-46) से कला दे रही-) इस ( दमयन्ती ) के चित्तमें मनोभू ( काम ) है, किन्तु हे देव ( हे सरकार ) ! वह आप ही है, क्योंकि सखी ( दमयन्ती ) मन रात-दिन तुम्हारी अब स्थिति (निवास) की भूमि है। [ नलने पहले (20 / 29 ) 'मनोभू' शब्दका 'मनसि भवति' ऐसा विग्रह करके दमयन्तीके चित्तमें कामका निवासस्थान कहकर उसे परपुरुष. संसर्गयुक्त कहा था, और 'कला' नामकी सखीने उसी 'मनोभू' शब्दका 'मनः भूः यस्य' ( मन है भूमि = निवास स्थान जिसकी ) ऐसा विग्रह करके नलको ही दमयन्तीके मन में निवास करनेवाला कहकर दमयन्तीके वचनको सत्य बतलाया है ] // 41 // सतस्तेऽथ सखीचित्ते प्रतिच्छायास मन्मथः / त्वयाऽस्य समरूपत्वमतनोरन्यथा कथम् ? / / 42 // सत इति / अथ इति पक्षान्तरे, अथवेत्यर्थः / सः भवदुक्तमनोभपदवाच्यः, मन्मथः कामः, सखीचित्ते दमयन्तीहृदये, सतः वर्तमानस्य, ते तवैव, प्रतिच्छाया प्रतिबिम्बम् , अन्यथा इत्थं न चेत् , अतनोः अनङ्गस्य, अस्य मन्मथस्य, त्वया भवता, समरूपत्वं तुल्याकारत्वम् , कथं ? केन प्रकारेण ? भवितुमर्हतीति शेषः / अतनोः रूपासम्भवात् तत् न कथमपि सम्भवतीत्यर्थः। धर्म्यभावे धर्मानवकाशात् स्वच्छदर्पणे प्रतिबिम्बितमुखस्य मुखव्यतिरेकेण यथा स्थिति स्ति, तथा अतिस्वच्छे नः सख्याः मनसि स्वद्वयतिरेकेण त्वत्प्रतिबिम्बभूतस्य कामस्य पृथक स्थितिरेव नास्ति अतनुत्वात् तस्य, अतो न पुरुषान्तरसेवावसरोऽस्याः इति भावः // 42 // अथवा वह कामदेव सखी ( दमयन्ती) के चित्तमें स्थित तुम्हारा प्रतिबिम्ब है, अन्यथा शरीरहीन ( कामदेव ) की तुम्हारे साथ समरूपता किस प्रकार होती ? [ जो वस्तु शरीर. वान् है, किसी शरीरवान्के साथमें उसीकी समानता की जा सकती है, शरीरीके साथ अशरीरीकी समानता कथमपि नहीं हो सकती; अतः दमयन्तीके हृदय में नित्य निवास करनेवाले आपका प्रतिबिम्ब ही आपको कामरूपसे प्रतिभासित हो रहा है, वास्तविक तो वह काम कोई अन्य व्यक्ति नहीं, किन्तु आपका प्रतिबिम्बमात्र ही है / स्वच्छतम दर्पण आदिमें ही कोई वस्तु प्रतिबिम्बित होती है, अतः दमयन्तीके हृदयमें नित्य निवास करने वाले आपका प्रतिबिम्ब कामरूपमें दृष्टिगोचर होता है, अत एव दमयन्तीका हृदय अत्यन्त स्वच्छ है, इस कारण आपको उसके हृदयको पुरुषान्तरयुक्त होनेसे दूषित बतलाना सर्वथा अनुचित है ] // 42 //
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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