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________________ 1264 नैषधमहाकाव्यम् / पाणिनिके व्याकरणशास्त्रको पहले पढ़नेवाला हुआ है, जो भाग्य (दुर्भाग्य ) से सब भूलकर प्रातःकालमें स्मृतिगोचर हुई ('दाधाब्वदाप्' (पा. सू. 333107) से विहित ) 'घु' संज्ञाको घोषित ( बार-बार उच्चारण ) करता हुआ पट्टिका ( पाटी ) के अध्ययनजन्य पूर्वसंस्कारसे इस समय भी शिर कँपा रहा है। [जिस प्रकार पहले पढ़े हुए ग्रन्थको दुर्भाग्यवश विस्मृत हो जानेपर प्रातःकालमें स्मरण पथागत किसी विशेष स्थलको बार-बार कहता हुआ वह भूतपूर्व विद्वान् पूर्वसंस्कारसे शिरको कम्पित करता है, तथा उसके गलेमें पढ़ने के समय काष्ठफलक (पाटी) पर खड़ियासे लिख-लिखकर उसे मिटाने के बाद अङ्गुलिमें लगी हुई खड़ियेकी धूलको विद्याप्रसादनार्थ कण्ठ में लगा रहता है, उसी प्रकार मानो यह कबूतर भी पहले पाणिनीय व्याकरणको पढ़ा हुआ है तथा शब्दसिद्धि करते समय घिसी हुई खड़ियेकी धूलको कण्ठमें लगा लिया है; किन्तु दुर्भाग्यवश सब पठित व्याकरणको भूल गया है इस प्रातःकालमें केवल 'घु' संज्ञा उसे याद आ गयी है, जिसे वह बार-बार कहता हुआ अध्ययनजन्य पूर्वसंस्कारसे अपने दुर्भाग्यको कोसता हुआ सिर धुन (कँपा ) रहा है। प्रातःकालमें स्मरण होना तथा स्मरण आनेपर शिर कँपाना प्रायः सबका स्वभाव होता है / कबूतर 'घु-घु' कर रहा है, अतः प्रातःकाल जानकर अब आप निद्रात्याग करें ] // 61 // पौरस्त्यायां घुसणेसुमनःश्रीजुषो वैजयन्त्यास्तोकैश्चित्तं हरति हरिति क्षीरकण्ठैर्मयूखैः / भानर्जाम्बूनदरुचिरसौ शुक्रसौधस्य कुम्भः स्थाने पान तिमिरजलाभिरेतद्भवाभिः / / 62 / / पौरस्त्यायामिति / जाम्बूनदरुचिः उदयरागात् कनककान्तिः, अत एव शक्र. सौधस्य पूर्वदिगवस्थितस्य इन्द्रप्रासादस्य वैजयन्तस्य, कुम्भः सौधाग्रवर्तिकनककलशरूपः इति रूपकम् / असौ परिदृश्यमानः, भानुः सूर्यः, पुरो भवायां पौर. स्त्यायां प्राच्याम् / 'दक्षिणापश्चात्पुरसस्त्यक्' इति त्यक , "किति चं' इति वृद्धिः / हरिति दिशि, घुसणस्य कुङ्कुमस्य, सुमनसां पुष्पाणाम् , या श्रीः शोभा, तज्जुषः तत्सेविन्याः, रक्तवर्णायाः इत्यर्थः / वैजयन्याः पताकायाः, तोकैः अपत्यः, पताकाया अपत्यसहजरित्यर्थः / 'अपत्यं तोकं तयोः समे' इत्यमरः। क्षीरकण्ठैः दुग्धपायिभिः बालै, मयूखैः किरणैः, चित्तं मनः, हरति मुष्णाति, मनोहरः भवतीत्यर्थः / किञ्च एतस्मात् कुम्भरूपात् भानोः, भवति जायते इति ताभिः एतद्भवाभिः कुम्भोत्प. माभिः, भाभिः प्रभाभिः, तिमिरजलधेः अन्धकारसमुद्स्य, पानं चुलुकीकरणम् , विनाशनमिति यावत् / 'उभयप्राप्ती कर्मणि' इति कर्मणि षष्ठी। स्थाने युक्तम् / १.-मसृण' इति पाठान्तरम् / २.'-स्तोमै-' इति पाठान्तरम् / ३.'-तनुरसौ' इति पाठान्तरम् /
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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