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________________ 1245 ऊनविंशः सर्गः। देवोंके आँगनरूपी आकाशमें रातको फैल गये थे, अब सूर्यरूपी झाडू लगानेवालेमें प्रातःकाल मानो झाडू लगाकर उन ताराओंकी आकाशरूपी आँगनसे बहारकर फेंक दिया है, (दूर कर ) दिया है, अत एव वह आकाशरूपी आँगन स्वाभाविक शोभाको धारण करनेसे अभूतपूर्व शोभाको धारणकर रहा है ] // 13 // प्रथममुपहृत्याय तारैरखण्डिततण्डुलैस्तिमिरपरिषदूर्वापर्वावलीशबलीकृतैः / अथ रविरुचां ग्रासातिथ्य नभः स्वविहारिभिः / सृजति शशिरक्षोदश्रेणीमयैरुदसक्तुभिः / / 14 / / प्रथममिति / नभः आकाशम् / कर्तृ। तिमिरपरिषत् तमोवृन्दम् , सा एवं दूर्वा. पर्वणां दूर्वाग्रन्थीनाम् , दूर्वादलानामित्यर्थः / आवली श्रेणी, श्यामवर्णत्वादिति भावः / तया शबलीकृतैः चित्रीकृतः, मिश्रितरित्यर्थः / तारैः नक्षत्रैरेव / 'नक्षत्रे नेत्रमध्ये च तारा स्यात् तार इत्यपि' इति व्याडिः / अखण्डिततण्डुलैः निस्तुषाभग्नशालिबीजैः, प्रथमम् आदौ, रविरुषां सूर्यकिरणानाम् , अर्घः पूजाविधिः, तस्मै इदम् अध्यं पूजोपकरणमित्यर्थः / 'मल्ये पूजाविधावर्घः' इति 'अय॑मर्धार्थ' इति चामरः / उपहृत्य दत्त्वा, अथ अनन्तरम् , स्वविहारिभिः स्वस्मिन् नास सञ्चरणशीलैः, शिशिरक्षोदश्रेणीमयः हिमशीकरपुञ्जरूपैः, उदसक्तभिः जलालोडितभृष्टयवचूर्णः / 'मन्थौदन-' इत्यादिना -उदकशब्दस्योदादेशः / ग्रासातिथ्यं ग्रासरूपम् अतिथिस. स्कारम् , अतिथये इदम् इति 'अतिथेयः' इति न्यः। सृजति सम्पादयति, इवेति शेषः। समागताय अतिथये अध्यदानानन्तरमन्नदानं हि गृहिणां रीतिः। रूपकालङ्कारः आकाश अन्धकार-समूहरूपी दूर्वाकाण्ड-समूहोंसे श्यामवर्ण युक्त अर्थात् मिश्रित किये गये तारारूपी अक्षतोंसे पहले सूर्यकिरणोंके लिए अर्घ्य देकर बादमें हिम-कण समूहरूपी जल मिश्रित सत्तूओंसे भोजनदानरूप आतिथ्य कर रहा है। जिस प्रकार कोई सद्गृहस्थ अपने गृहपर आये हुए अतिथिके लिये पहले अक्षत तथा दूर्वायुक्त जलसे अर्घ्य देने के बाद उसके लिए अपने घरमें सरलतासे प्राप्य जल मिलित सत्तू आदिसे भी उसे भोजन देकर अतिथि-सत्कार क्रियाको पूर्ण करता है, उसी प्रकार यह आकाश भी श्यामवर्ण होनेसे दूर्वातुल्य अन्धकारसे तथा श्वेतवर्ण होनेसे अखण्डित तण्डुल-कण ( अक्षत ) तुल्य ताराओंसे पहले सूर्य-किरणोंके लिए अर्घ्य देकर बादमें श्वेत हिमकणरूप जलयुक्त सत्तूसे उनका भोजनदानरूप अतिथि सत्कार कर रहा है ] // 14 // असुरहितमप्यादित्योत्थां विपत्तिमुपागतं दितिसुतगुरुः प्राणैर्योक्तुं न किं कचवत् तमः | पठति लुठती कण्ठे विद्यामयं मृतजीवनी ? यदि न वहते सन्ध्यामौनव्रतव्ययभीरुताम् // 15 //
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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