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________________ 1240 नैषधमहाकाव्यम् / मायामयी सीताको अन्धकारतुल्य कृष्णवर्ण केशोंको पकड़कर मारा था, उसी प्रकार प्रमापति (सूर्य) रात्रिको अन्धकाररूपी केशोंको पकड़कर मार ( नष्ट कर ) रहा है। [ कल्पभेदसे या-कविसमयापेक्षासे पहले सत्ययुगोत्पन्न नलकी अपेक्षा बादमें त्रेतायुगोत्पन्न सीताका वर्णन करना असङ्गत नहीं है / हे राजन् ! रात्रि वीत गयी, कुमुद सङ्कुचित होने लगे, कमल निकलने लगे, चन्द्रमा प्रकाशहीन होने लगा; अत एब प्रभातकाल जानकर निद्रात्याग कीजिये] // 8 // त्रिदशमिथुनक्रीडातल्पे विहायसि गाहते निधुवनधुतस्रग्भागश्रीभरं ग्रहसङ्ग्रहः / मृदुतरकराकारैस्तूलोत्करैरुदरम्भरिः परिहरति नाखण्डो गण्डोपधानविधां विधुः / / 6 / / त्रिदशेति / ग्रहसंग्रहः तारकात्मकशुकादिग्रहगणः, ग्रहशब्दस्य उपलक्षणत्वात् , रजन्याः पश्चिमयामे शुक्रताराया उदयदर्शनाच्चेति भावः। त्रिदशमिथुनानां देव. द्वन्द्वानाम् , क्रीडातल्पे विहारशय्यास्वरूपे, विहायसि आकाशे, निधुवनेन सुरतेन, सुरतकालिकप्रबलसञ्चालनेनेत्यर्थः / धुतस्रग्भागानां धुतानाम् इतस्ततो विक्षिप्ता. नाम् , स्नग्भागानां पुष्पमालांशानाम् , मालातो विक्षिप्तानामेकैकपुष्पाणामिस्तर्थः / निर्माल्यानामिति यावत् , श्रीभरमिव श्रीभरं शोभाऽतिरेकम् गाहते आश्रयति / किञ्च अखण्डः परिपूर्णमण्डलः, विधुः चन्द्रः, मृदुतरकराः अतिशयेन कोमलाः किरणा एव, आकाराः रूपाणि येषां तादृशः, तूलोस्करैः तूलपटलैः, उदरम् अभ्यन्त. रम बिभर्ति पूरयतीति उदरम्भरिः पूरितमध्यः, व्याप्तोदरः सन् इत्यर्थः / 'फलेग्रहित रात्मम्भरिश्च' इति चकारात् सिद्धः / गण्डोपधानस्य कपोलोपबहस्य, गोलाकारकपोलनिधानास्येत्यर्थः / 'उपधानन्तूपबहः' इत्यमरः। विधां प्रकारम् , तुल्यतामि. त्यर्थः / न परिहरति न त्यजति, गण्डोपधानत्वं भजते इत्यर्थः / उपागमेन क्षीणप्रभ. स्वादिति भावः / अत्र श्रियमिव श्रियं विधामिव विधामिति सादृश्याक्षेपात् उभयत्र निदर्शनोत्थानात् सजातीयसंसृष्टिः // 9 // (शुक्र आदि ) ग्रह-समूह देव-मिथुनकी क्रीडा-शय्यारूप आकाशमें ( देव-मिथुनके ) सुरतसे मर्दित मालाके पुष्पोंकी शोमाके समान शोभाको ग्रहण कर रहा है तथा पूर्णचन्द्रमा कोमलतर किरणों के समान रूईकी राशिसे मध्यमागको पूर्ण करता हुआ (गोलाकार ) गलतकिये ( कपोलके नीचे रखी जानेवाली गोलाकार छोटी तकिया) के शोभाको नहीं छोड़ रहा है अर्थात् गलतकियेके समान शोम रहा है। [जिस प्रकार शय्यापर मैथुन करनेसे मालाके टूटने से उसके फूल बिखरकर फैल जाते हैं, उसी प्रकार देवमिथुनके शय्यारूप आकाशमें यह शुक्रादि तारागण देवमिथुनके सुरतमें टूटी मालाके बिखरे हुए फूलों के समान शोभता है तथा उस शय्यापर जिस प्रकार श्वेत रूईसे भरी हुई गोलाकर मर्दित
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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