SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 532
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अष्टादशः सर्गः। 1226 कहा ); इस तुम्हारे सखियों के अपना-अपना भयकारण बतलानेपर मेरे (नळके) विरहसे अपना भय बतलाती हुई तुमको मैंने एकान्तमें ( देवों के दिये वर (14.91 ) के प्रभावसे अन्तर्धान होकर या-खम्बे आदिके आड़में छिपकर ) सुना, 'सो मैं तुम्हें नहीं छोडूंगा' ऐसा वरदान असत्यकातर ( असत्यसे डरनेवाले, अथवा-असती स्त्रियों में अकातर%3D निर्भय, किन्तु सती स्त्रियों में भययुक्त ) नलने ( दमयन्तीके लिए ) दिया। [ दमयन्तीके लिए ऐसा वरदान देकर मी भविष्यमें उसका त्याग करनेसे पालन नहीं होनेपर भी दैवाधीन कार्यके अवश्यम्भावी होनेके कारण नल असत्यमाषणके दोषी नहीं हुए ऐसा समझना चाहिये] // 143-144 // सङ्गमय्य विरहेऽस्मि जीविका यैव वामथ रताय तत्क्षणम् / हन्त दत्थ इति रुष्टयाऽऽवयोनिद्रयाऽद्य किमु नोपसद्यते ? // 145 / / सङ्गमय्येति / या एव या अहं निद्रा, विरहे परिणयात् पूर्व विच्छेददशायाम , वां युवाम् , सङ्गमय्य मेलयित्वा, स्वप्नसङ्गतिसुखम् अनुभाव्येत्यर्थः। जीविका जीवितवती, युवयोर्जीवनरक्षाकारिणीत्यर्थः / अस्मि भबामि / अथ अनन्तरम् , परिणयात् परमिदानीमित्यर्थः। तस्याः मम निद्राया एवेत्यर्थः, क्षणं समयम् , रात्रिरूपं कालमित्यर्थः / रताय सुरताय, दत्थः अर्पयथः, युवामिति शेषः / तस्मिन् समये युवां मां परित्यज्य सुरतं प्रपद्यथः इत्यर्थः। ददातेर्लटि थस् / हन्त इति खेदे, इति अस्माद्धेतोः, किमु किम् , इत्युत्प्रेक्षा, रुष्टया ऋद्धया, निद्रया स्वापेन, अद्य अस्यां रात्रौ, आवयोः तव मम च, न उपसद्यते ? न सनिकृष्यते ? न समीपे आगम्यते ? इत्यर्थः / सीदतेर्भावे लट् / निद्रां लब्धुं चेष्टायां कृतायामपि तदलाभेन नलस्योक्तिरियम् // 145 // जो मैं ( निद्रा) विरहमें तुम दोनोंको ( स्वप्नावस्थामें ) मिलाकर जिलानेवाली बनी, इसके बाद (इस समय विवाह हो जानेपर स्वत एव मिलनेपर तुम दोनों) उसके ( मेरी-निन्द्राके ) समय अर्थात् रात्रिको सुरतके लिए दे रहे हो, मानो इस कारणसे रुष्ट हुई निद्रा आज पासमें नहीं आती है क्या ? / ( पाठा०-तुम दोनों क्षणमात्र मुझे नहीं दे रहे हो, किन्तु रात्रिरूप सम्पूर्ण समय सुरतके लिए ही दे रहे हो...")। [ नल तथा दमयन्तीने सारी रात्रिको कामकेलिमें ही व्यतीत किया, क्षणमात्र भी नहीं सोये, इसपर नलने दमयन्तीसे कहा कि-हे प्रिये ! विवाहके पहले विरहावस्थामें जब हम दोनों सोते थे तब स्वप्नावस्थामें परस्पर सङ्गति हो जाया करती थी, इस कारण निद्रा ही हम दोनोंके जीवनका उस समय कारण थी / किन्तु अब विवाह होनेपर स्वतः मिले हुए हम दोनों जो रात्रिका समय निद्राके लिए देना उचित था, उसे निद्राके लिए न देकर सुरतके लिए दे रहे हैं अर्थात् रात्रिमें थोड़ा भी नहीं सोकर पूरी रात सुरतक्रीड़ामें व्यतीत कर रहे हैं, इसी कारण प्रथमोपकार करनेवाली वह निद्रा हमलोगोंसे रुष्ट होकर हमलोगोंके पास नहीं आती है क्या ? / लोकमें भी प्रथम उपकार करनेवालेके उपकारको भूलकर यदि उपकृत व्यक्ति
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy