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________________ अष्टादशः सर्गः। 1223 (इस प्रकार दमयन्तीके चरणोंपर गिरकर ) नलने कहा-'कोपको छोड़ो, देखो, वसन्तकी छोटी ( कुछ शेष रहनेसे थोड़ी, या शीतकालकी अपेक्षा छोटी) रात्रि नष्ट हो (व्यर्थमें ही बीत ) रही है, ( अत एव ) फिर दूसरी (आगामिनी--अगले दिनवाली, याशीतकालकी ) रात्रिमें हसी प्रकार ( पाठा०-इसी) बचे हुए कोपको क्षणमात्र करना, ( तो वैसा कुछ ठीक भी होगा ) / [ दमयन्तीके चरणपतित नलने कहा-आजकल वसन्त ऋतुकी रात्रि एक तो स्वयं छोटी होती है तथा दूसरे वह थोड़ी ही शेष रह गयी है, अत एव इस समय कोप छोड़कर सम्भोगार्थ प्रसन्न होवो, हां, इस प्रकार कोपको तुम भले ही किसी दूसरी ( शीतकालकी बड़ी, या कल-परसो आदिकी ) रात्रिमें कर लेना तो वह कुछ ठीक भी होगा, अन्यथा यदि आज ही सब कोप करके उसे समाप्त कर दोगी तो दूसरी रात्रि में कहांसे कोप करोगी, अत एव भविष्य के लिए भी कुछ कोपको बचा रखना उचित है] / साथ नाथमनयत् कृतार्थतां पाणिगोपितनिजाम्रिपङ्कजा / तत्प्रणामधुतमानमाननं स्मेरमेव सुदती वितन्वती / / 135 / / सेति / अथ प्रियप्रणामानन्तरम् , पाणिभ्यां कराभ्याम् , गोपिते तच्छिरःस्पर्शभयात् छादिते, निजाघ्रिपङ्कजे स्वीयपादपद्मयुगलं यया ताहशी, सुदती सुन्दरंदन्तशालिनी, सा भैमी, तस्य नलस्य,प्रणामेन पादपतनेन, धुतमानं दूरीभूतकोपम्, अपगतकोपचिह्नमित्यर्थः, आननं स्वमुखम् , स्मेरं सस्मितम् , वितन्वती एव कुर्वती एव, नाथं स्वामिनं नलम् , कृतार्थतां पूर्णकामम् , अनयत् प्रापितवती // 135 // इस ( नलके प्रणाम-प्रियभाषण ) के बाद हाथोंसे अपने चरणकमलको ढकती हुई सुन्दर दाँतोंवाली उस (दमयन्ती) ने उस ( नल ) के प्रणामसे मानरहित मुखको स्मित. युक्त करती हुई अर्थात् मुस्कुराती हुई स्वामी ( नल ) को कृतार्थ कर दिया। [ 'स्वामीके मस्तकका मेरे चरणोंसे स्पर्श न हो' इस लिए अपने चरणोंको दोनों हाथोंसे दमयन्तोने ढक लिया तथा मान छोड़कर मुस्कुराती हुई नलको कृतकृत्य कर दिया। उसके उक्त व्यवहारसे नलको अपार हर्ष हुआ ] / / 135 // तौ मिथोरतिरसायनात् पुनः सम्बुभुक्षुमनसौ बभूवतुः / चक्षमे न तु तयोमनोरथं दुर्जनी रजनिरल्पजीविती / / 136 / / ताविति / तौ भैमीनलौ, मिथः अन्योऽन्यम् , रतिः अनुरागः एव, रसायनं जरा. दिजातावसादनाशकौषधविशेषः तस्मात् , 'यजराव्याधिविध्वंसि भेषजं तदसायनम्' इति वाग्भटोक्तेः / प्रथमसुरतजावसादनाशकौषधविशेषसेवनेन पुनः प्रवृत्तिहेतोः, पुनः भूयः, सम्बुभुक्षुणी सम्भोक्तुमिच्छुनी, मनसोचित्ते ययोः तादृशौ सम्भोक्तुकामौ, बभूवतुः जज्ञाते / तु किन्तु, दुर्जनी दुष्टजन्मा, परसुखद्वेषित्वादिति भावः। अल्प. जीविता वसन्तरात्रीणाम् अतिहस्वत्वात् अचिरस्थायिनी, अल्पायुष्का च, रजनिः 1. 'जीवना' इति पाठान्तरम् /
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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