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________________ अष्टादशः सर्गः। 1221 दीपलोपमफलं व्यधत्त 'यस्ते पटाहृतिषु मच्छिखामणिः / नो तदागसि परं समर्थना सोऽयमस्तु पदपातुकस्तव !! 131 / / दीपेति / हे प्रिये ! ते तव, पटाहृतिषु वस्त्राकर्षणकालेषु, यः मच्छिखामणिः मम चूडारत्नम् , दोपलोपं त्वत्कर्तृकदीपनिर्वापणम् , अफलं व्यर्थम् व्यधत्त चकार, स्वप्र. भया आलोकोत्पादनात् तव प्रयत्नं निष्फलीचकार इत्यर्थः / तदागसि तस्मिन् अप. राधे, परम् उत्कृष्टम् , समर्थना अनुमोदनम् , तदपराधस्य यौक्तिकत्वसमर्थनमिः त्यर्थः / नो न, अस्तीति शेषः / अत एव सः अयं शिखामणिः, तव ते, पदपादुकः पादपाती 'लषपत-' इत्यादिना उकज / अस्तु भवतु / प्रणिपातेन एवापराधप्रमाः जनं करोतु इत्यर्थः // 13 // जिस मेरे मुकुटमणिने तुम्हारे वस्त्रों के अपहरण करने ( हटाने ) में ( अपनी प्रभासे ) दीप बुझाना व्यर्थ कर दिया, उस अपराधमें कोई समर्थन नहीं है अर्थात यह मुकुटमणि अपने किये हुए उस कार्यको किसी प्रकार उचित नहीं प्रमाणित कर सकता, अत एव वह (मुकुटमणि ) तुम्हारे चरणोंपर गिरे अर्थात् अपराध-मार्जनका दूसरा कोई उपाय नहीं होनेसे तुम्हारे चरणोंपर गिरकर ही अपने पूर्वकृत अपराधको क्षमा करावे [ क्योंकि लोकमें भी कोई अपराधी अपने अपराधको चरणोंपर गिरकर क्षमा याचना करता है तथा सज्जन लोग उसे क्षमा भी कर देते हैं, अत एव चरणोंपर गिरनेसे तुम्हें भी इसके अपराध को क्षमा कर देना चाहिये ] / / 131 // इत्थमुक्तिमुपहृत्य कोमलां तल्पचुम्बिचिकुरश्चकार सः। आत्ममौलिमणिकान्तिभङ्गिनी तत्पदारुणसरोजसङ्गिनीम् / / 132 / / इत्थमिति / सः नलः, 'इत्थम् उक्तप्रकाराम , कोमलां ललितपदाम , उक्तिं वाणीम् , उपहृत्य उपायनीकृत्य, तस्याः सन्तोषविधानाय उपढौकनवत् प्रयुज्ये. त्यर्थः / तल्पचुम्बिनः शय्यास्पर्शिनः, मस्तकनमनादिति भावः / चिकुराः स्वकेशाः यस्य सः तादृशः सन् , आत्ममौलिमणिकान्तिः निजशिरोरत्नप्रभा एव, भगिनी तरङ्गिणी, तरङ्गप्रवाहवत् कुटिलतया प्रसरणात् नदीत्यर्थः / ताम् , तत्पदे भैमीचर• णावेव, अरुणसरोजे कोकनदद्वयम् , तत्सङ्गिनी तयुक्ताम् चकार विदधे / तत्पादयो. नमश्चकार इत्यर्थः / नद्यो ह रक्तनीलकमलादियुक्ता भवन्तीति प्रसिद्धिः // 132 // इस प्रकार ( 18 / 126-131 ) मृदु वचन कहकर ( प्रणाम करनेसे ) शय्याका स्पर्श कर रहा है केश जिसका ऐसे उस ( नल) ने अपने मुकुटरत्नोंकी कान्तिरूपिणी नदीको उस ( दमयन्ती ) के चरणरूपी रक्तकमलसे युक्त कर दिया। [उक्त मृदुवचन कहने के उपरान्त नल दमयन्तीके चरणोंपर नम्र हुए तो उनके केश पलङ्गको छूने लगे तथा उनके मुकुटरत्नोंकी कान्ति दमयन्तीके अरुणवर्ण चरणोंपर फैल गयी तो ऐसा मालूम पड़ता था कि 1. 'यस्त्वत्पदा-' इति पाठान्तरम् /
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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