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________________ अष्टादशः सर्गः। 1209 वोदयेन रोमाश्चात्, जातम् उत्पन्नम्, अन्तरमपि तन्मात्रव्यवधानमपि, योजनानि बहयोजनव्यवधानानीत्यर्थः। बोधतः स्म अबुध्यताम् / बोधतेभीवादिकाद् भूते 'लट स्मे' इति लट् / तथा मिथः अन्योऽन्यम्, वीक्षणे दर्शनविषये, निमेषमपि अक्षि वर्मनिमीलनोन्मीलनकालव्यवधानमपि, वरसरव्यवधिं वर्षकालव्यवधानम्, अध्यगच्छता मन्येते स्म / अनुरागाधिक्यादिति भावः // 108 // उन दोनों (नल तथा दमयन्ती ) ने आलिङ्गनमें रोमाञ्चजन्य व्यवधान (दूरी ) को भी अनेक योजन दूर समझा तथा परस्पर देखने में निमेष (पलक गिरने ) को भी वर्षोंका व्यवधान होना समझा // 108 // वीक्ष्य भावमधिगन्तुमुत्सुकां पूर्वमच्छमणिकुट्टिमे मृदुम् / कोऽयमित्युदितसम्भ्रमीकृतां स्वानुबिम्बमददर्शतैष ताम् // 109 / / अथानयोः च्युतिसुखं पञ्चभिर्वर्णयति, वीक्ष्येत्यादि / एषः नैषधः, तां प्रियां, मुद कोमलां, परिश्रमासहिष्णुत्वात् श्लथावयवामिति यावत् , अत एव पूर्वम् आत्मनः प्राक , भावं च्युतिसुखावस्थाम,अधिगन्तुं प्राप्तुम, उत्सुकाम् इच्छन्ती, वीक्ष्य गाढा लिङ्गनादिलिङ्गैः ज्ञात्वा, कोऽयम् ? अयं कः अत्र समागतः 1 इति, उक्त्वा इति शेषः, उदितः सञ्जातः, सम्भ्रमः भयचकितभावो यस्याः सा उदितसम्भ्रमा, अतां तां कृताम् उदितसम्भ्रमीकृताम् / अभूततद्भावे विः / प्रियामिति शेषः / अच्छे निर्मले, प्रतिबिम्बग्राहिणि इत्यर्थः / मणिकुट्टिमे रत्ननिबद्धभमी, स्वानुबिम्बं निजप्रतिबिम्बम, अददर्शत दर्शितवान् / मत्प्रतिबिम्बदर्शनात् भ्रान्तं मया इति तस्याः त्रासम् अपाचकार इत्यर्थः / शेणौँ चङि 'णिचश्च' इति तङ्। 'अभिवादिदृशोरात्मने पदे वेति वाच्यम्' इति अणिकत्तु : कर्मस्वम् / उभयोयुगपद्भावप्राप्तये तस्याः प्राक पातं व्यास. ङ्गेन प्रत्यबध्नात् , अन्यथा वैरस्यं स्यादिति भावः // 109 // ( अब इन दोनों के च्युतिसुखका पांच इलोकों (18 / 109-113) से वर्णन करते हैं-) इस ( नल ) ने उस ( दमयन्ती ) को ( अधिक सुरतश्रम नहीं सह सकनेके कारण ) शिथिल अवयवोंवाली ( अत एव नलसे) पहले च्युतिसुखावस्थाके लिए उत्सुक अर्थात् च्युतिसुखको चाहती हुई देखकर ' यह कौन है ? (ऐसा कहने पर किसी दूसरे व्यक्तिके आनेकी आशङ्कासे) उत्पन्न भय तथा आश्चर्यसे युक्त हुई उस प्रियाको मणियोंके निर्मलतम कुट्टिम (फर्श ) पर अपना प्रतिबिम्ब दिखलाया। [ दमयन्ती अतिशय मृदु होनेसे सुरतश्रमको अधिक नहीं सह सकनेके कारण शिथिलांगी होकर नलसे पहले ही स्खलित बिन्दु होना चाहती थी, किन्तु ऐसा होनेपर सुरतके आनन्दके मध्यमें ही भंग होना अनुचित होनेसे नलने 'यह कौन है ? ऐसा कहा, जिससे सुरत जैसे गोप्यतम समयमें दूसरेका उपस्थित हो जाना, फसल होमेसेदमयन्ती सहसा चकित एवं प्रसात हो गयी तथा 'कहाँ कौन आ गया ?' ऐसा नलसे पूछा तो उन्होंने मणिमयी भूमिमें पड़ती हुई अपनी / पर छाहीको
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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