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________________ अष्टादशः सर्गः। 1207 हारः छिन्ना त्रुटिता, हारविततिः विस्तृतहारो यस्य ताशे। भाषितपुंस्कत्वात् पुंवदावः / श्रान्तिवारिभरेण सुरतश्रमोद्भूतस्वेदपूरेण, भाविते आप्लुते, अन्यस्याः भैम्याः हृदये वक्षसि / 'सर्वनाम्नो वृत्तिमात्रे पुंवद्भावः' इति वद्भावः। छायया प्रतिबिम्बेन, विभूषणम् अलङ्करणम , अभवत् अजायत / अत्र एकस्यैव हारस्य उभयत्र भूषणत्वेन असम्बन्धेऽपि सम्बन्धोक्तेः तद्पातिशयोक्तिरलङ्कारः // 104 // उस समय ( सुरतकाल ) में उन दोनों ( दमयन्ती तथा नल) में से एक (नल ) के वक्षःस्थलपर लटकती हुई मी मुक्तामाला सुरत-श्रमजन्य स्वेदविन्दुसे व्याप्त दमयन्तीके वक्षःस्थलपर प्रतिबिम्बित होनेसे (दमयन्तीके वक्षःस्थलका) भी भूषण बन गयी / [ सुरतकालमें हारके टूट जानेसे हारहीन, किन्तु सुरतके परिश्रमसे स्वेदबिन्दुओंसे युक्त दमयन्तीके वक्षःस्थलमें प्रतिबिम्बित सम्मुखस्थ नलके वक्षःस्थलका हार ही उस ( दमयन्तीके वक्षःस्थल ) का भी हार बन गया। दमयन्ती सुरतजन्य श्रमसे स्वेदयुक्त हो गयी तथा उक्त मुक्ताहार भी टूट गया ] // 104 // वामपादतललुप्तमन्मथश्रीमदेन मुखवीक्षिणाऽनिशम् / भुज्यमाननवयौवनाऽमुना पारसीमनि चचार सा मुदाम् // 105 / / वामेति / वामपादस्य सव्यचरणस्य, तलेन अधःप्रदेशेन, अत्यन्तापकृष्ठावयवे. नेति भावः / लुप्तः हृतः, मन्नथस्य कामस्य, श्रियः मदः सौन्दर्यदर्पः येन दाहशेन, अतिसुन्दरेणेत्यर्थः / अनिशं निरन्तरम् , मुखवीक्षिणा दमयन्तीवदनदर्शिना, अमुना नलेन, भुज्यमानम् उपभोगं 'कुर्वन्तं, नवयौवनम् अभिनवतारुण्यं यस्याः तादृशी, सा भैमी, मुदाम आनन्दानाम , पारसीमनि चरमावस्थायाम , चचार विचरितवती नलसम्भोगात् परमानन्दमाप इत्यर्थः // 105 // ___ वामचरणतल (शरीरका अतिशय तुच्छ अवयव, पक्षा०-सुन्दर पादतल) से कामदेवके सौन्दर्यमदको नष्ट करनेवाले अर्थात् कामदेवसे भी अत्यधिक सुन्दर (तथापि-अर्थात इतना अधिक सुन्दर होने पर भी स्वानन्दवृद्धयर्थ) सर्वदा (दययन्तीके) मुखको देखते रहनेवाले इस (नल ) के द्वारा भोग किये जाते हुए 'नवयौवनवाली वह (दमयन्ती) हर्षोकी दूसरी सीमापर घूमने लगी अर्थात् अत्यधिक हर्षित हुई / / 105 // आन्तरानपि तदङ्गसङ्गमैस्तर्पितानवयवानमन्यत | नेत्रयोरमृतसारपारणां तद्विलोकनमचिन्तयन्नलः // 106 // आन्तरानिति / नलः तस्याः दमयन्त्याः, अङ्गसङ्गमैः बाह्यावयवसम्पर्कः, आन्त. रान् आभ्यन्तरानपि, न केवलं वक्षःप्रभृतिबहिरवयवानिति भावः। अवयवान् अन्तःकरणादीन् अंशान् , तर्पितान् प्रीणितान् अमन्यत अबुध्यत / तथा तस्याः 1. अन्न बहुव्रीहिसमासत्वेन कर्मप्रत्ययान्तस्य प्रथमान्तस्यौचित्याश्चिन्त्यमिदं कर्तृप्रत्ययान्तं द्वितीयान्तं पदम् /
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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