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________________ 1196 नैषधमहाकाव्यम् / विधूय कम्पयित्वा, स्मरणं नाटयित्त्वा दुर्वारत्वं निश्चित्येति भावः / केवलं निमिमील स्वयं निमीलिताक्षी जाता / स्वाभाविकलज्जावशादिति भावः // 83 // (उन दोनों दीपकोंमें- से ) एकको / ( वस्त्राञ्चल या-मुखवायुसे ) बुझाने पर फिर बुझे हुए भी उस दीपकको ( नलकी इच्छामात्रसे ) जलता हुआ देखकर ( स्वयम्वरमें दिये हुए ) अग्नि के वरदान (14 / 74) का स्मरण होनेपर दमयन्तीने ( अरे ! अग्निके द्वारा नलके लिये दिये हुए वरदानके प्रभावसे ऐसा हो रहा है, इस अभिप्रायसे ) शिरको हिलाकर (दीपक बुझाकर अन्धकार करना अशक्य होनेसे तुलसीदासके 'मूंदे आँख कहीं कोउ नाही' इस वचनके अनुसार ) केवल आँखोंको बन्द कर लिया // 83 // पश्य भीरु ! न मयाऽपि दृश्यते यनिमेषितवती दृशावसि | इत्यनेन परिहस्य सा तमः संविधाय समभोजि लजिता // 4 // पश्येति / भीरु ! हे वराङ्गने ! लज्जाया वराङ्गनाभूषणत्वादिति भावः। 'भियः क्रक्लुकनौ' इति क्रप्रत्ययः, ततः उङन्तत्वात् नदीत्वात् ह्रस्वः / 'भीरुराः त्रिलिङ्गः स्यात् वरयोषिति योषिति' इति मेदिनी / यत् यतः, दृशौ नयनद्वयम् , निमेषितवती लज्जया निमीलितवती, असि भवसि, त्वमिति शेषः / मम दर्शनभयादिति भावः। तत् तत एव, मया अपि न दृश्यसे अवलोक्यसे , स्वमिति शेषः / त्वन्निमीलने सर्व स्यान्धकारावृतत्वादिति भावः / पश्य अवलोकय, इति इत्थम , अनेन नलेन, परिहस्य उपहस्य, तमः अन्धकारम् , संविधाय निर्माय, लज्जिता वीडिती, सा दमयन्ती, समभोजि सम्भक्ता / अन्यथा उभयोस्तुल्यप्रीतेरयोगादिति भावः // 84 / / हे भीरु ( लज्जाकातर दमयन्ती) ! जो तुमने नेत्रोंको बन्द कर लिया है, उससे मैं भी तुमको नहीं देखता हूँ ( अथवा-तुमने नेत्रोंको बन्द कर लिया है और मैं नहीं देखता हूँ, यह आश्चर्यकी बात है / अथवा-तुमने नेत्रोंको बन्द किया है, इससे मैं भी तुमको नहीं देखता ? अर्थात् तुम्हें तो मैं देख ही रहा हूँ। अथवा-कोई व्यक्ति अपने शरीर के अदर्शनार्थ उस शरीरको ही वस्त्रादिसे छिपाता है, परन्तु तुमने शरीरको नहीं छिपाकर नेत्रोंको बन्द किया है, अत एव मैंने तो तुम्हारे अङ्गोंको अच्छी तरह देख ही लिया है, तुम्हारे नेत्र बन्द करनेसे कोई लाम नहीं हुआ ? ) इस प्रकार परिहासकर ( इच्छामात्रसे दीपकोंके बुझानेपर ) अन्धकार करके नलने लज्जित हुई उस दमयन्ती के साथ सम्भोग किया // 84 // चुम्ब्यसेऽयमयमङ्कथसे नखैः श्लिष्यसेऽयमयमय॑से हृदि / नो पुनर्न करवाणि ते गिरं हुं त्यज त्यज तवास्मि किङ्करा / / 85 / / अथान्धकारकल्पनायाः फलं युग्मेनाह-चुम्ब्यसे इत्यादि / हे प्रियतम ! इत्यामन्त्रणपदमूहनीयम् / अयं स्वम् , चुम्ब्यसे तव अधरः पीयते ; अयं त्वम् , नखः अयसे क्षतकरणेन चिह्नयसे; अयं स्वम् , श्लिष्यसे मालिङ्गयसे; अयं त्वम्, हृदि उरसि अयंसे स्थाप्यसे इत्यर्थः / सर्वत्र मयेति शेषः / ते तव, गिरं वाक्य चम्बनादि
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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