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________________ 1164 नैषधमहाकाव्यम् / इत्यर्थः / न, तत् काननं वनम्, न, सा अद्रिभूः पर्वतसानुः, न, स विषयः देशः, न, तत् विष्टपं जगत् , न, सर्वत्र आसीदिति शेषः / किञ्च सा ताहशी, विधैव प्रकारः एव, न, आसीदिति शेषः / यया यया विधया धेनुकादिबन्धप्रकारेण, न वा, क्रीडिता इति शेषः / तेन सह सर्वत्रैव विजहार इत्यर्थः // 79 // ___ उस ( दमयन्ती) ने उस ( नल ) के साथ जहां पर क्रीडा नहीं की; ऐसा कोई स्थली ( अकृत्रिम भूमि ) समुद्र (कूपादि लघु जलाशयसे लेकर समुद्रतक महाजलाशय ), वन, पर्वतीय भूमि, देश अथवा लोक ( भू , भुवः, स्वः ये तीन; अथवा-भू , भुवः, स्वः, महः, जनः, तप और सत्य ये सात लोक ) नहीं था और वह (कामशास्त्रोक्त धेनुकादिबन्धरूप ) प्रकार नही था; जिस-जिस प्रकारसे उसने नलके साथ क्रीडा नहीं की हो [ दमयन्तीने नलके साथमें सब प्रकार की क्रीडाएँ सर्वत्र की ] / / 79 / / नम्रयांशुकविकर्षिणि प्रिये वक्त्रवातहतदीप्तदीपया / भर्तु मौलिमणिदीपितास्तया विस्मयेन ककुभो निभालिताः / / 80 // नम्रयति / प्रिये नले, अंशुकविकर्षिणि परिहितवसनाकर्षगकारिणि सति, नम्रया नतया, गूढाङ्गगोपनाय अवनतपूर्वकायया इत्यर्थः / तथा वक्त्रवातेन मुखमारुतेन, फुस्कारेणेत्यर्थः / हतः निर्वापितः, दीप्तः प्रज्वलितः, दीपः प्रदीपः यया तथाभूतया, तया भैम्या, भत्तु मौलिमणिभिः पत्युर्मुकुटस्थरस्नैः, दीपिताः प्रकाशिताः, ककुभः दिशः, विस्मयेन दीपे निर्वापितेऽपि कथामालोकप्रकाश इत्याश्चर्येण, निभालिताः दृष्टाः // 8 // (गुप्तांगके दर्शनार्थ) प्रियके वस्त्र खोंचते रहने पर ( उस गुप्तांगको नहीं देखे जाने के लिए ) झुकी हुई तथा फूंककर जलते हुए दीपकको बुझाई हुई उस दमयन्तीने पति ( नल) के मुकुटमै जड़े हुए रत्नोंसे प्रकाशमान दिशाओंको आश्चर्यसे देखा / [ अन्धकार होने के लिए किये गये दोप्रनिर्वाणरूप अपने प्रयत्नको नलके मुकुटरत्नोंसे प्रकाशमान दिशाओंको देख दमयन्ती आश्चर्यिंत हो गयी ] // 80 // कान्तमूर्ध्नि दधती पिधित्सया तन्मणेः श्रवणपूरमुत्पलम् | रन्तुमर्चनमिवाचरत पुरः सा स्ववल्लभतनोमनोभवः / / 81 // कान्तेति / सा भैमी, तस्य भत्त मौलिस्थितस्य, मणेः रत्नस्य, पिधित्सया पिधा. तुम् आवरितुम् इच्छया, कान्तस्य प्रियस्य, मूदुनि शिरसि, श्रवणपूरं निजकर्णभूषणीभूतम्, उत्पलं नीलोत्पलम्, दधती स्थापयन्ती सती, रन्तुं रतिकर्म कर्तुम्, पुरः कर्मप्रारम्भे, स्ववल्लभः निजपतिः एव, तनुः मूर्तिः यस्य तादृशस्य नलमूतः, मनोभुवः कामस्य, रत्यधिदेवतस्य इति यावत् / अर्चनं पूजनम्, आचरत् इव अन्वतिष्ठदिव इत्युत्प्रेक्षा // 1 // पति ( नल ) के मस्तकमें उस (प्रकाशमान-१८८०) रनको ढकनेको इच्छासे
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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