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________________ 1160 नैषधमहाकाव्यम् / क्यानुकरणैरित्यर्थः / जगाद उवाच / तदा मत्समीपे वाक्यमुच्चार्य इदानीमनुच्चारणे न किमपि फलम् , अतोऽवश्यमेव मया सह आलपिष्यसीति भावः // 72 // (हे प्रिये ! तुम ) 'नहीं बोलती हो, नहीं बोलती हो', इस कारण अर्थात् 'तुम्हारे नहीं बोलनेसे तुम्हारे वचनको मैं नहीं सुनता हूं क्या ? अर्थात् अवश्य सुनता हूं' इस प्रकार उस दमयन्तीसे कहकर नलने 'दूतभावसे गये हुए नलसे दमयन्तीने जैसा ( 'तदद्य विश्रम्य दयालुरेधि मे' ( 9.66 ) इत्यादि मृदु वचन )' कहा था, वही वचन उस दमयन्तीकी मृदूक्तियोंसे कहा अर्थात् दमयन्तीने दूत बनकर गये हुए नलसे जैसे मृदु वचन कहे थे, वैसे ही मृदु वचन नलने भी दमयन्तीसे कहे / / 72 // नीविसोम्नि निबिडं पुराऽरुणत् पाणिनाऽथ शिथिलेन तत्करम् / सा क्रमेण न न नेति वादिनी विघ्नमाचरदमुष्य केवलम् / / 73 / / नीवीति / सा दमयन्ती, नीविसीम्नि कटीवस्त्रग्रन्थिसमीपे, तत्करं प्रियहस्तम्, ग्रन्थिमोचनाय उपस्थितमिति भावः। पुरा प्रथमम्, पाणिना स्वकरेण, निबिडं दृढं यथा तथा, अरुणतू रुद्धवती। रुणद्धेः कर्तरि लङ। अथ कियदिनानन्तरम् , शिथिलेन श्लथेन, अहढेनेत्यर्थः, पाणिना अरुणदित्यन्वयः। क्रमेण क्रमशः भयभ. ड्रेन, तत्परमित्यर्थः। केवलं न न नेति वादिनी केवलं वाचिकनिषेधम् एवं 'कुर्वती सती, अमुष्य प्रियकरव्यापारस्य, विघ्नं नीविमोचनप्रतिबन्धम् , आचरत् अकुर्वदि. त्यर्थः क्रमशो लज्जापगमात् वाङमात्रेणेव केवलं विघ्नमाचरत् न तु अङ्गेनेति भावः / अत्रैकस्मिन् नीविदेशे क्रमादनेकव्यापारसम्बन्धोक्तेः पर्यायालङ्कारभेदः // 73 // ____उस ( दमयन्ती ) ने पहले नीवि ( नाभिके नीचे बँधी हुई वस्त्रग्रन्थि ) के पासमें ( उसे खेलने के लिए पहुंचे हुए ) नलके हाथको कड़े हाथसे रोका, इसके बाद ( लज्जा एवं भय के कुछ कम हो जानेपर ) ढीले हाथसे रोका और क्रमशः (कुछ दिनों के बाद, लज्जा एवं भय के अधिक कम हो जानेपर ) 'नहीं, नहीं' ऐसा कहती हुई उस ( दमयन्ती) ने इस ( नल, या-नलकर ) के विघ्नको किया अर्थात् रोका / / 73 // रूपवेषवसनाङ्गवासनाभूषणादिषु पृथग्विदग्धताम् / साऽन्यदिव्ययुवतिभ्रमक्षमा नित्यमेत्य तमगान्नवा नवा / / 74 // रूयेति / रूपं सौन्दर्यम , वेषः विविधप्रकारनेपथ्यम् , वसनं वस्त्रम् , अङ्गवा. सना धूपादिना शरीरसंस्कारः, भूषणं कङ्कगादि, तानि आदिः येषां तेषु विविधप्र. कारप्रसाधनादिषु विषयेषु, नित्यं प्रत्यहमेव, पृथक् भिन्नभिन्नरूपाम् , विदग्धतां कुशलिताम् , एत्य प्राप्य, प्रत्यहमेव नवनववेशरचनां कुर्वतीत्यर्थः। अत एव नवा नवा नूतना नूतना सती, आभीक्ष्ण्ये द्विर्भावः / सा भैमी, अन्या अपरा काचित् , दिव्या स्वर्गीया, युवतिः तरुणी, उर्वश्यादिरित्यर्थः। इति भ्रमे भ्रान्तिजनने, 1. 'क्षमाम्' इति पाठान्तरम् /
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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