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________________ अष्टादशः सर्गः। 1187 सङ्कोचापगमादिति भावः। अत्रैकस्य करस्य क्रमादनेकेषु भुजांशुककुचेषु वृत्तिकथ. नात् 'क्रमेणैकमनेकस्मिन्' इत्याद्यक्तलक्षणः पर्यायालङ्कारभेदः // 66 // नलने स्तनोंको ढके हुए दमयन्तीके हाथों को पहले छुआ, अनन्तर (दमयन्तीके) स्तनोंको ढाँकनेवाले कपड़ों को छुआ और सबसे बादमें वस्त्रावरण रहित ( दमयन्ती के ) स्तनोंको छुआ। [ दमयन्तीने लज्जावश कपड़ेसे ढके हुए स्तनोंको हाथसे मी ढक लिया था, अत एव नलसे क्रमशः पहले उसके हाथोंका अनन्तर कपड़ेका और बादमें वस्त्ररहित स्तनोंका स्पर्श किया ] // 66 // याचनान्न ददती नखार्पणं तां विधाय कथयाऽन्यचेतसम् / वक्षसि न्यसितुमात्ततत्करः स्वं बिभेद मुमुदे स तन्नखैः / / 67 // याचनादिति / स नलः, याचनात् मां नखेन विदारय इति प्रार्थनाकरणादपि, नखार्पणं नखेन भेदनम् , न ददतीं नार्पयन्तीम् , स्नेहवशात् नखक्षतमकुर्वतीमित्यर्थः। तां प्रियाम् कथया विविधालापप्रसङ्गेन / 'चिन्तिपूजिकथि-' इत्यादिना अङप्रत्ययः। अन्यचेतसम् अन्यमानसाम् , 'प्रसङ्गान्तरन्यासक्तचित्तामित्यर्थः / विधाय कृत्वा, वक्षसि स्वोरसि, न्यसितुं स्थापयितुम् , आत्ततस्करः गृहीतभैमीपाणिः सन् , तन्नखैः प्रियाया एव नखैः, स्वम् आत्मानम् , बिभेद अभिनत् , व्यवारयदि. त्यर्थः / मुमुदे च ननन्द च // 67 // ( 'तुम भी मेरे वक्षःस्थलपर नखक्षत करो' ऐसी) याचना करनेपर भी (प्रेम या लज्जासे) नखक्षत नहीं करती हुई उस ( दमयन्ती) को नलने दूमरी तरहकी बातोंसे कथासक्त चित्तवाली करके ( अपने ) वक्षःस्थलपर उसका हाथ रखकर तथा अपने (वक्षःस्थल) का ( उसके ही नोसे) भेदनकर आनन्दको प्राप्त किया // 67 // स प्रसह्य हृदयापवारकं हत्तमक्षमत सुभ्रवो बहिः / होमयं न तु तदीयमान्तरं तद्विनेतुमभवत् प्रभुः प्रभुः॥ 6 // स इति / प्रभुः स्वामी, सः नलः, सुभ्रवः सुलोचनायाः प्रियायाः, बहिः बाह्यम् , हृदयापवारकं वक्षोदेशाच्छादकम् , स्तनावरणवस्त्रमित्यर्थः / प्रसह्य बलात्, हत्तम् अपसारयितुम् , अक्षमत अशक्नोत् , तु किन्तु, तदीयं दमयन्तीयम् , आन्त. रम अन्तर्वर्ति, हीमयं लज्जारूपम् , तत हृदयापवारकम् , विनेतुम् , अपसारयितुम्, न प्रभुः न समर्थः, अभवत् अजायत / तस्य सहजत्वादिति भावः // 68 // ____ पति वे ( नल) वक्षःस्थलको ढकने वाले दमयन्तीके बाहरी आवरण ( वस्त्र) को तो हठसे हटा सके, किन्तु लज्जारूप उसके भीतरी आवरणको नहीं हटा सके / [ यद्यपि विश्वास उत्पन्न होनेसे वे दमयन्तीके वक्षःस्थलके आवरणवस्त्रको किसी प्रकार हटा नहीं सके, किन्तु स्वाभाविक लज्जाको नहीं हटा सके, अतः वक्षःस्थलका स्पर्श करने पर वह दमयन्ती पुनः लज्जित हो ही गयी] // 68 // .
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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