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________________ 1158 नैषधमहाकाव्यम् / भित्तिभ्रमं त्याजितैर्जालकैर्गवाक्षः कृत्वा अशृगताम् / दिने रजतादिभितोनां मगोनां वा भासा छादितानि जालानि भित्तितुल्यानि भवन्ति, रात्रौ तु रजतादिभित्तीनां तादृशप्रकाशाभावात्ताभिरेव कपटकुड्यत्वं त्याजितानि जलरूपेणैव प्रतीयन्ते / ततश्च प्रतिष्ठासामात्सचेतनौ सुरतलोलुपौ रतिस्मरावपि गवाक्षेषु दिवा जातभित्तिभ्रमा बुभावपि कुड्यभ्रमेणाविचार्येच विशङ्को यत्र सुरतं चक्रतुः, जालमार्गेण शब्दसञ्चाराच तत्कूजितानि तौ शुश्रुवतुरिति भावः। पुरोधसो मन्त्रप्रभावश्च सूचितः / तण्डुलचूर्णादिमण्डलिप्तं चित्रमय वस्त्रं कपटकुड्यम् / दिवोष्मप्रवेशभिया गवाक्षेषु चित्रपटा ध्रियन्ते रात्रौ च पवनागमनार्थमपनीयन्ते, तथा च दिनवद्रात्रावपि कुडबा. बुद्धया विशकं मणितानि चक्रतुरिति वा। अपगोत्याच्छादयतीत्यपवरो गृहगर्भ पचाद्यच / 'प्रतिकृतिरर्चा पुंसि-' इत्याचमरः // 1 // गर्भगृहके मध्य ( अथवा-रति-स्मर-प्रतिमा के पार्श्ववर्ती गृह ) में दमयन्ती तथा नलने जड़े हुए रत्नोंकी किरणोंसे (दिनमें मो खिड़कियों को दोवाल समझने के कारण) निःशङ्क ( दूसरा कोई मेरे रति-कूजितको इस निश्छिद्र घरमें-से नहीं सुन सकता इस प्रकार शङ्कारहित ), जिस (प्रासाद ) में प्रतिष्ठित (नल-पुरोहित के द्वारा प्राणप्रतिष्ठाप्राप्त ) रति तथा कामदेवकी ( स्वर्णादिरचित ) मूर्तियों के 'सीत्कृतों' (रतिकालिक दन्त तथा नखादिके क्षतसे उत्पन्न 'सीत् , सीत-' शब्द-विशेषों) को सुना तथा रात्रिमें रजत आदिकी बनी दीवालोंमें वैसा प्रकाश नहीं रहनेसे कपटकुड्यताको छोड़ ( भ्रान्तिजन्य दोवाल ) के भ्रमको दूर करनेवाली खिड़कियोंसे उक्त सीत्कृतों को सुना। अथवा-सूर्यादि-सन्तापके निवारणार्थ खिड़कियोंपर डाले गये चित्रित पर्दोको ही रतिस्मर दोवाल समझकर निःशङ्क हो क्रीडा करते थे और रात्रिमें वायु आने के लिए उन पर्दो को हटा दे नेपर प्रकाश नहीं रहनेसे खिड़कियोंको ही रति-स्मर दीवाल समझकर निश्शत हो कोडा करते थे और उस गृहके पार्ववर्ती गृहमें स्थित नल तथा दमयन्ती उन दोनों ( रति-स्मर) के सीकृतोंको सुनते ते। [प्रतिमाओं में मन्त्रद्वारा प्राणसञ्चार करनेसे नलपुरोहितका प्रभावातिशय सूचित होता है ] // 1 // कृष्णसारमृगशृङ्गभङ्गरा स्वादुरुजवलरसैकसारणिः / नानिशं त्रुटति यत्पुरः पुरा किनरोविकटगीतिझकृतिः / / 18 / / कृष्णेति / यत्पुरः यस्य सौधस्य सम्मुखदेशे, कृष्णसारमृगस्य कालसारख्यहरिजस्य, शृङ्गवत् विषाण इव, भङ्गुरा भगवती, अतिवति यावत् / एकत्र-कण्ठस्व. रस्य कम्पनविशेषेग तथोचारणात् , अन्यत्र-स्वभावादिति भावः / अत एव उबलरसस्य शृङ्गाररसस्य, 'शृङ्गारः शुचिरुज्वलः' इत्यमरः / एका मुख्या, सारणिः कुल्या, स्वल्पनदीत्यर्थः, 'प्रसारण्यां स्वपनद्याञ्च सारगिः' इति मेदिनो। शृङ्गार. 1. '-सारिणी' इति पाठान्तरम् / 2. 'यन्मुखे' इति पाठान्तरम् /
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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