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________________ द्वादशः सर्गः / 741 हुआ', इस प्रकार इस ( मिथिलानरेश ) के शत्रुओंके मस्तक युद्ध भूमिमें दाँतोंसे अपने ओष्ठोंको काटकर रह जाते हैं / [ 'पवर्ग' का उच्चारण-स्थान ओष्ठ होनेसे पाहि' शब्दके उच्चारण नहीं करनेसे मुख्यापराधी ओष्ठ ही है, अत एव अपराधीको दण्डित करना उचित है। अिस प्रकार शवकी मूठ नहीं खुलती, उसी प्रकार युद्धभूमिमें क्रोधसे मरने के समय दाँतों से ओष्ठ काटते हुए वैरियोंके मस्तक ज्यों के त्यों (वैसी ही अवस्थामें ) रह जाते हैं / / यह मिथिलानरेश शरणागत शत्रुका रक्षक तथा उद्धत शत्रुको मारनेवाला है ] ! / 63 // भुजेऽपस पत्यपि दक्षिणे गुणं सहेषुणाऽऽदाय पुरःप्रसपिणे / धनुः परीरम्भमिवास्य सम्मदान्महाहवे दित्सति वामबाहवे / / 64 // भुजे इति / महाहवे महारणे, अस्य राज्ञः, धनुः कर्त,दक्षिणे अपसव्ये, अथ च सरले, अनुकूलेऽपीत्यर्थः, भुजे हस्ते, इषुणा सह गुणं ज्याम् , आदाय अपसर्पति अपगच्छति, कर्णपश्चादेशं गच्छति सत्यपीत्यर्थः, अथ च रणस्थलात् पलायनं कुर्वत्यपि, पुरःप्रसर्पिणे पुरोगामिने, गुणसहायाभावेऽपि रिपुसम्मुखयायिने इति भावः, वामबाहवे वामहस्ताय, अथ च प्रतिकूलायापि भुजाय, सम्मदात् रिपुविनाशाय रणक्षेत्रपुरोभागगमनजन्यसन्तोषात् , परीरम्भम् आलिङ्गनम् , 'उपसर्गस्य घन्यमनुप्ये बहुलम्' इति दीघः, दित्सतीव दातुमिच्छतीव इत्युत्प्रेक्षा, ददातेः सनन्ताल्लट 'सनि मीमा-' इत्यादिना इदादेशः अभ्यासलोपश्च, मध्यस्थः सुवंशजो जनः गुणिनि अनुकूलेऽपि स्वजनमादाय सङ्ग्रामात् पलायिते सति सङ्ग्रामं कत्त पुरोगामिने प्रतिकूलायापि जनाय निपुणोऽयमिति मत्वा हर्षादालिङ्गनं ददाति इति निष्कर्षः। वामहस्तस्थितधनुषः दक्षिणहस्तेनाकर्णान्तगुणाकर्षणात् वामहस्ते कोटिद्वयनमनमेवालिङ्गनत्वेनोत्प्रेक्षितम् / जिगीषुभिः दक्षिणोऽपि भीरुः न समाद्रियते वामोऽपि रणोत्साही शूरः समाद्रियते इति भावः // 64 // महायुद्ध में इस राजाका धनुष बाणके साथ गुण ( मौवीं, पक्षा०-श्रेष्ठ गुण ) को लेकर दाहने ( पक्षा०-अनुकूल ) हाथके पीछे हटते रहनेपर (पक्षा०-कान तक पहुँचने पर ) आगे बढ़नेवाले वाम (बाएँ, पक्षा०-प्रतिकूल ) हाथके लिए मानो हर्षसे आलिङ्गन ( अथवा-हर्षसे मानो आलिङ्गन ) देता है। [जिस प्रकार गुणको सहायक सहित लेकर भगनेबाले अनुकूल व्यक्तिका भी आद्र नहीं होता, किन्तु आगे बढ़नेवाले असहाय या प्रतिकूल व्यक्तिका भी आदर होता है, उसी प्रकार इस राजाका धनुष भी युद्धभूमिसे पीछे हटनेवाले दाहने बाहुका आलिङ्गन कर आदर नहीं करता, अपितु आगे बढ़नेवाले वायें बाहुका आलिङ्गन कर आदर करता है। युद्धभूमिमें यह मिथिलानरेश धनुषको अच्छी तरह पकड़नेवाला तथा बाणको कान तक बँचनेवाला है ] // 64 / / अस्योर्वीरमणस्य पार्वणविधुद्वैराज्यसज्जं यशः सर्वाङ्गोज्ज्वलशर्वपर्वतसितश्रीगर्वनिर्वासि यत् /
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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