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________________ 1134 नैषधमहाकाव्यम् / इति विश्वः / प्रश्नं पृच्छाम् , कामयते वान्छति इति तत्कामः सन् , 'शीलिकामिभक्ष्याचरिभ्यो णः' / तत्र पुरे, परिभ्रमन् विचरन् , क्वचित् कुत्रापि, कञ्चिदपि कमपि, परिचितं संस्तुतम् , जनमिति शेषः / न अद्राक्षीत् न ऐक्षिष्ट // 189 // ___ कलि दमयन्ती तथा नलके लेशमात्र भी दोषको पूछनेकी इच्छा कर उस नगरीमें घूमता हुआ कहींपर किसी परिचित ( उनके लेशमात्र भी दोष जानकार, अथवा-अपने सुपरिचित ) नहीं देखा / ( अथवा- 'घूमता हुआ कहींपर (किसी व्यक्तिमें-दमयन्ती, नल तथा वहांके निवासियोंमें ) कुछ भी ( थोड़ा भी दोष ) नहीं देखा अर्थात् वहां के सभी लोगोंको सर्वथा दोषहीन ही देखा ) / / 189 / / तपःस्वाध्याययज्ञानामकाण्डद्विष्ट तापसः / / स्वविद्विषां श्रियं तस्मिन् पश्यन्नुपतताप सः // 190 / / तप इति / अकाण्डे अनवसरे, अकारणमित्यर्थः / द्विष्टा विरुद्धाः, तापसाः तपस्विनः येन तादृशः, सः कलिः, तस्मिन् पुरे, स्वविद्विषां निजविरोधिनाम्, तपः चान्द्रायणादिचर्या, स्वाध्यायः वेदपाठः, यज्ञाः सोमादयः तेषाम् , श्रियं समृद्धिम् , पश्यन् अवलोकयन् उपतताप सन्तप्तो बभूव, शत्रुवृद्धरसहनीयत्वादिति भावः 190 ___ अकारण तपस्वियों के साथ द्वेष करने वाला कलि उस पुरीमें अपने वैरी तप, स्वाध्याय और यज्ञकी सम्पत्ति ( अथवा-उन्नति ) को देखकर (शत्रु-समृद्धिको सहन नहीं कर सकने के कारण ) सन्तप्त हुआ। [ पञ्चाग्नि आदिले साध्य 'तप', वेदादिका पढ़ना 'स्वाध्याय' और देवोंके उद्देश्यसे द्रव्यत्याग करना 'यज्ञ' कहलाता है ] // 190 // कम्र तत्रोपनम्राया विश्वस्या वीक्ष्य तुष्टवान् / स मम्लौ तं विभाव्याथ वामदेवाभ्युपासकम् / / 191 // कनमिति / स कलिः, तत्र पुरे, उपनम्रायाः उपासकस्य समीपं स्वयमागतायाः, विश्वस्याः सर्वस्याः, सजातीयाया विजातीयायाः गम्यायाः अगम्यायाश्चेत्यर्थः, स्त्रिया इति शेषः / कनं कमितारम् , रन्तारमित्यर्थः / कञ्चन पुरुषमिति शेषः / 'नमिकम्पि-' इत्यादिना रप्रत्ययः / वीक्ष्य दृष्ट्वा, तुष्टवान् तुतोष, तस्य महापातकित्वेन स्वाश्रयलाभाशयेति भावः / अथ अनन्तरम्, विशेषनिरीक्षणानन्तरमित्यर्थः। तं कदं पुरुषम , वामदेवः तन्नामदेवताविशेषः, तस्य अभ्युपासकं पूजकम् , विभाव्य विमृश्य, मम्ली विषसाद / तदुपासकानां 'न कान्चन स्वयमागतां परिहरेत्' इति श्रतेस्तदुपभोगस्य धय॑स्वादिति भावः // 191 // . 7 वह ( कलि ) वहांपर उपासकके समीप आयी हुई सर्व जातिवालों के साथ सम्भोग करनेवाली स्त्रीके कामुक ( किसी पुरुष ) को देखकर ( यह महापातकी होनेसे मेरे पक्षका है 1. 'वामदेव्या-' इति पाठान्तरम् /
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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