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________________ 1100 नैषधमहाकाव्यम् / दूरादिति / हे देवाः !दूरात विप्रकृष्टदेशात् , नः अस्मान् , प्रेक्ष्य दृष्ट्वा, युष्माकम् इयं यौष्माकी भवदीया / 'युष्मदस्मदोरन्यतरस्याम्' इत्यणप्रायये 'तस्मिन्नणि च' इत्यादिना युष्माकादेशे 'टिड्ढाणा' इत्यादिना ङीप् / इयम् एषा, वक्त्राणां मुखा. नां वक्रणा वकीकरणम् , निर्यङमुग्वत्वमित्यर्थः / 'तत्करोति-' इति ण्यन्तात् युच् / लजया एव व्रोडावशेनैव, दमयन्त्या अवृतत्वादिति भावः। अस्माकम् इदम् आस्माकम् , यौष्माकीवत् प्रक्रिया / मुखम् आननम् , ईक्षितुं द्रष्टम् , असमर्थानाम् , अशक्यानां युष्माकमिति शेषः / अथवा समासान्तगततया गुगोभूतस्य यौष्माकात्यत्र युष्मच्छब्दस्य विशे गम् ; युक्ता उचिता // 124 // (आते हुए ) हमलोगों को दूरसे ही देखकर लज्जासे हो (पाठा० -मानो लज्जाले ) हमलोगों के मुखको देखने के लिए असमर्थ तुमलोगों को यह विमुखता ( हमलोगोंके सामनेसे मुख फेर लेना ) उचित ही है / [ दमयन्तीने स्वयंवरमें गये हुए तुमलोगों का वरण नहीं किया है, अतएव तुमलोग अतिशय लज्जित हो और इसी कारण आते हुए हमलोगों को दूरसे हा देखकर अपना मुख फेर लिये हो यह तुमलोगों के लिए उचित ही है। लोकमें भी कोई अतिशय लज्जित व्यक्ति परिचित जनको आते हुए दूरसे ही देखकर मुख माड़ लेता है / यद्यपि देवोंने होन कलिको नहीं देखने के लिये मुख फेर लिया था ( 17.111 ), तथापि उसको कलि अन्यथा समर्थन करते हुए इस प्रकार कह रहा है ] // 124 / / स्थितं अवद्भिः पश्यद्भिः कथं भास्तदसाम्प्रतम् / निदग्धा दुर्विदग्धा किं सा हशा न ज्वलत्क्रुधा ? // 125 / / स्थितमिति / भोः देवाः! पश्यद्भिः अवलोकयद्भिः, नलवरणमिति शेषः / भवद्भिः युष्माभिः, कथं केन प्रकारेण, स्थितम् ? उदासितम् ? भावे क्तः। तद् औदासीन्यम् , असाम्प्रतम् अयुक्तम् / किं तर्हि तदा कार्यम् ? तदाह-दुर्विदग्धा दुविनीता सा भैमी, ज्वलत्क्रया दोप्यमानकोपया, कोपप्रज्वलितया इत्यर्थः। दृशा हवा, किं कथं, न निदग्धा ? न भस्मोकृता ? दग्धुमेव उचिता इत्यर्थः // 12 // ___ हे देवो ! उसे ( नलवरणको , देखते हुए तुमलोग क्यों उदासीन रहे ! ( अथवा-कैसे दहरे रहे ) ? यह अनुचित हुआ, दुविनीत उस ( दमयन्ती ) को क्रोधसे जलती हुई दृष्टिसे भस्म क्यों नहीं कर दिया ? / [ जिस दमयन्तीने तुमलोगोंका त्यागकर सामान्यतम मनुष्य नरका वरण किया और उसे तुमलोग चुपचाप उदासीन होकर देखते रहे, सशक्त होकर भी क्रोधसे भस्म नहीं कर दिया, यह उचित नहीं किया ] // 125 // महावंशाननादृत्य महान्तमभिलाषुका / स्वीचकार कथङ्कारमहो ! सा तरलं नलम् // 126 // दाह्यत्वे हेतुमाह-महेति / महान्तम् उत्कृष्टपुरुषम, वरीमति शेषः। अभिलापुका कामयमाना। 'लषपत-' इत्यादिना उकङ्प्रत्ययः, 'न लोका-' इत्यादिना
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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